30 August, 2010

मौसम गाए--राग मारवा या मियां मल्हार ....!!!-18


झड़ -झड़ के पतझड़ --
सूना -सूना सा---
नीरव -नीरस सा
-
शांत सा --
कर देता था--

 वातावरण...... -
धरा मौन 
कर लेती थी धारण --
जीवन अग्रसर ....
साँसे फिर भी निरंतर ...
गूंजता था सन्नाटा --
बेचैनी बढ़ जाती थी ....
निराशा छाजाती थी ...
फिर भी ---
एक आवाज़ आती थी ..
पवन के साथ उड़ने की ....

टूटे -टूटेपत्तों के
 गिरने की ...
सूखे -सूखे पत्तों के 

खड़खडाने की ....
हस्ती मिट गयी थी जिनकी -
चिर निद्रा में विलीन -
धरा में लीन-
बन गए थे अवशेष...

रह गयी थी एक खोज --
एक भटकन शेष .....
पतझड़ है या..

 कोई राग मारवा गा रहा है ...!!!!

पतझड़ सावन या बहार -
हर मौसम के दिन

......चार-चार -
स्थिर सी

बाटजोहती थी पृथ्वी -
सगुन मनावत .......

कब नेह बरसेगा..
  मोरे आँगन --
नव पल्लवी का 

होगा आगमन ..
फूट पड़ेंगी

 नवल कोपलें.....
........कब .....................?
पड़ती जब मेधा की

 प्रथम बूँद --
तृषित थी धरा 

अब देख रही
 पलकें मूँद .....
आहा बीत चुका

 पतझड़ का मौसम -
आ गया सावन..
 मन भावन -
बरस पड़ी जब

 सुमधुर घटा--
बिखरी चहुँ ओर..

 मतवारी सी छठा--
रिमझिम रस बहार बरसे ॥
लेकर प्रियतम का प्यार बरसे ॥

भर -भर गीतों की फुहार बरसे ...
गा ले रे मनवा मधुर मधुर गीत ...
ये पल भी जाएँ तोरे न बीत ...
थम जाए बस समय की ये धारा॥
मौसम ने गाया राग मियां - मल्हार प्यारा .....!!!!!!!!!!!!!!!!!

14 August, 2010

दिल्ली का रोया दिल ....!!!!


पांच महीने के लम्बे अंतराल के बाद विदेश से अपने देश लौटने का आभास ही कुछ और था .अपना देश-- --लगता था पवन के झोंके के साथ किसी पुष्प की भीनी सी खुशबू मिली हुई है ...!! अपने लोग --परिचित से जाने पहचाने से चहरे .अपनी भाषा --लगता था बस बेधड़क हिंदी ही बोलती रहूँ .मन का झूला ऊँची ऊँची पींगें भर रहा था ...सभी चीज़ें कितनी सुहावनी लग रही थीं .मन में उमंग लिए गाते -गुनगुनाते मैं पहुँच गयी दिल्ली .परन्तु यह क्या ...?दिल्ली के हालात देख कर घोर आश्चर्य हुआ --पूरी दिल्ली की सड़कें खुदी पड़ी हैं ....ट्राफिक का इतना बुरा हाल ...?जगह जगह जाम ..पीं-पीं ....करता हुआ गाड़ियों का अनवरत शोर ....कैसी आपा-धापी मची हुई है ---हर शक्स आगे से आगे भागना चाहता है ..!!.........इसी पीं -पीं के शोर में दब गयीं हैं हर मनुष्य की भावनाएं ..........
पहुंची जब परदेस से अपने देस -
लागी मनवा को ये कैसी ठेस ....
मन मेरा --जीवन मेरा --
पीड़ा भी मेरी ही --!!
धर ली फिर एक गठरी -
सोच की सर पर --
बोझिल सा हो गया ह्रदय --
दिल्ली की हालात को देख देख मन रोया -
खुदा पडा सारा शहर - जाने फिर क्या क्या खोया --

कहाँ गए वो लोग ....?कहाँ गयी वो सभ्यता जिसका डंका पुरे विश्व में बजता है .क्या अपनी मातृभूमि की इस दशा के लिए हम स्वयं ज़िम्मेदार नहीं हैं ...??बचपन में कहीं पढ़ी हुई एक कविता की चन्द पंक्तियाँ याद आ गयीं --

''ये गंगा और यमुना नर्मदा का दूध जैसा जल-
हिमालय की अडिग दीवार और ये मौन विन्ध्याचल-
बताती है आरावली की हमें यह शांत सी चोटी-
यहीं राणा ने खायी देश हित में घांस की रोटी -
अगर इन रोटियों का ऋण चुकाना भी बगावत है -
तो मैं एलान करता हूँ की मैं भी एक बागी हूँ ................!!''

आज के परिपेक्ष में यही बात खरी उतरती है .कुछ बागी लोगों की ही अब देश को ज़रुरत है ..मौन रह कर सहन करना उचित नहीं है ....जन जन में जागरूकता लानी चाहिए ....!!!
जय हिंद .

02 August, 2010

अनुभूती-17

बढ़ता जाता धीमे -धीमे -
जीवन ऐसे ----
अनुभूती --शबरी के खट्टे -मीठे
बेर हों जैसे ॥





सर-सर करती-
सन-नन चलती -
तेज़ हवाएं --
यूँ सम्हल न पायें
मन का घूंघट -
उड़ा ले जाएँ --
चेहरा सबका साफ़ दिखाएँ --

दृष्टि मेरी जीवन पूँजी -
सृष्टि की नवरचना देखूं -
बंद नयन था जीवन सपना -
खुले नयन -जीवन सच देखूं ....
कोई अपना सा बनता पराया -
कोई पराया सा बनता कुछ अपना --
बढ़ता जाता धीमे धीमे जीवन ऐसे -
अनुभूती शबरी के खट्टे मीठे बेर हों जैसे