नमष्कार !!आपका स्वागत है ....!!!

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नमष्कार..!!!आपका स्वागत है ....!!!

19 August, 2022

अनुरिमा .....!!



बीती विभावरी अरुणिमा
उन्नयन ले आ रही है ,
प्रमुदित नव स्वप्न निज उर
लक्षणा समझा रही है   ....!!

है सुलक्षण रंग मधु  घट
स्वर्णिमा अभिधा समेटे
क्षण विलक्षण अनुरिमा
वसुधा बाग़ महका रही है .....!!

कांतिमय स्थितप्रज्ञ सी
अनुपम सुकेशिनी भामिनि ,
विहग की बोली में जैसे
किंकिणि झनका रही है   ....!!

ऐश्वर्य का अधिभार लेकर  ,
अंजुरी धन धान्य पूरित
आ रही राजेश्वरी
शत उत्स सुख बरसा रही है !!

 वसुधा के कपाल पर
कुमकुमी अभिषेक करती
भोर की आभा में अभिनव
रागिनी मुस्का रही है !!


जीवन है बातों में उसकी ,
शीतलता रातों में है ,
भ्रमर की अनुगूंज
मंगल गीत सुखमय गा रही है   .....!!

दे रहे आशीष कण कण
प्रकृति छाया अनुराग
आ रही सुमंगला
शत उत्स सुख बरसा रही है !!


 अनुपमा त्रिपाठी
  "सुकृति "


01 August, 2022

"लम्हों का सफर "(डॉ .जेन्नी शबनम )


डॉ .जेन्नी शबनम जी की "लम्हों का सफर "पढ़ रही हूँ | लम्हों के सफर में लम्हां लम्हां एहसास पिरोये हैं !!अपनी ही दुनिया में रहने वाली कवयित्री के मन में कसक है जो इस दुनिया से ताल मेल नहीं बैठा पाती हैं | बहुत रूहानी एहसास से परिपूर्ण  कविताएं हैं | गहन हृदयस्पर्शी भाव हैं | प्रेम की मिठास को ज़िन्दगी का अव्वल दर्जा दिया गया है | दार्शनिक एहसास के मोतियों से रचनाएँ पिरोई गई हैं किसी और से जुड़ कर उसके दुःख को इतनी सहृदयता से महसूस करना एक सशक्त कवि ही कर सकता है | पीड़ा को ,दर्द को ,छटपटाहट को शब्द मिले हैं | ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़ी  ,जीवन की जद्दोजहद प्रस्तुत करती हुई कविताएं हैं | सभी कविताओं को सात भाग में विभाजित किया है -१-जा तुझे इश्क़ हो २-अपनी कहूँ ३-रिश्तों का कैनवास ४-आधा आसमान ५-साझे सरोकार ६-ज़िन्दगी से कहा सुनी ७-चिंतन |

रिश्तों के कैनवास में उन्होंने अनेक कविताऐं अपनी माँ ,पिता व बेटा  और बेटी को समर्पित कर लिखी हैं !! 

आइये उनकी कुछ कविताओं से आपका परिचय करवाऊं | 

"पलाश के बीज \गुलमोहर के फूल ''

में बहुत रूमानी एहसास हैं !!बीते हुए दिनों को याद कर एक टीस सी उठती प्रतीत होती है 

याद है तुम्हें 

उस रोज़ चलते चलते 

राह के अंतिम छोर तक

 पहुँच गए थे हम

सामने एक पुराना सा मकान 

जहाँ पलाश के पेड़ 

और उसके ख़ूब सारे ,लाल -लाल बीज 

मुठ्ठी में बटोरकर हम ले आये थे 

धागे में पिरोकर ,मैंने गले का हार बनाया 

बीज के ज़ेवर को पहन ,दमक उठी थी मैं 

और तुम बस मुझे देखते रहे 

मेरे चेहरे की खिलावट में ,कोई स्वप्न देखने लगे 

कितने खिल उठे थे न हम !


अब क्यों नहीं चलते 

फिर से किसी राह  पर 

बस यूँ ही ,साथ चलते हुए 

उस राह के अंत तक 

जहाँ गुलमोहर के पेड़ की कतारें हैं 

लाल- गुलाबी फूलों से सजी राह पर 

यूँ ही बस...!

फिर वापस लौट आउंगी 

यूँ ही ख़ाली हाथ 

एक पत्ता भी नहीं 

लाऊंगी अपने साथ !

 कवयित्री का प्रकृति प्रेम स्पष्ट झलक रहा है !!सिर्फ यादें समेट  कर लाना कवयित्री की इस भावना को उजागर करता है  कि उनकी सोच भौतिकतावादी नहीं है | प्रकृति से तथा कविता से प्रेम उनकी कविता ''तुम शामिल हो " में  भी परिलक्षित होता है ,जब वे कहती हैं 

तुम शामिल हो 

मेरी ज़िन्दगी की 

कविता में। ... 

कभी बयार बनकर ,

कभी ठण्ड  की गुनगुनी धुप बनकर 

कभी धरा बनकर 

कभी सपना बनकर 

कभी भय बनकर 

जो हमेशा मेरे मन में पलता है 

तुम शामिल हो मेरे सफर के हर लम्हों में 

मेरे हमसफ़र बनकर 

कभी मुझमे मैं बनकर 

कभी मेरी कविता बनकर !

बहुत सुंदरता से जेन्नी जी ने प्रकृति प्रेम को दर्शाया है और उतने ही साफगोई से अपने अंदर के भय का भी उल्लेख किया है जो प्रायः सभी में होता है | 

ऐसी रचनाएँ हैं जिन्हें बार बार पढ़ने का मन करता है |  

अब ये रचना पढ़िए 

''तुम्हारा इंतज़ार है ''


मेरा शहर अब मुझे आवाज़ नहीं देता 

नहीं पूछता मेरा हाल 

नहीं जानना चाहता 

मेरी अनुपस्थिति की वजह 

वक़्त के साथ शहर भी 

संवेदनहीन हो गया है या फिर नयी जमात से फ़ुर्सत नहीं 

कि पुराने साथी को याद करे 

कभी तो कहे कि आ जाओ 

''तुम्हारा इंतज़ार है "!


प्रायः नए के आगे हम पुराना  भूल जाते हैं ,इसी हक़ीक़त को बड़ी ही खूबसूरती से बयां किया है !!जीवन की जद्दोजहद और मन पर छाई भ्रान्ति को बहुत सुंदरता से व्यक्त किया है कविता ''अपनी अपनी धुरी ''में | हमारे जीवन की गति सम नहीं है | इसी से उत्पन्न होती वर्जनाएं है ,भय है भविष्य कैसा होगा | नियति पर विश्वास रखते हुए वे कर्म प्रधान प्रतीत होती हैं !!यह कविता ये सन्देश देती है की भय के आगे ही जीत है | कर्म करने से ही हम भय पर काबू पा सकते हैं !! 

"मैं और मछली "

में वो लिखती हैं :

"जल बिन मछली की तड़प 

मेरी तड़प क्यों कर बन गई ?


.  

उसकी और मेरी तक़दीर एक है 

फ़र्क  महज़ ज़ुबान और बेज़ुबान का है 

वो एक बार कुछ पल तड़प कर दम तोड़ती है 

मेरे अंतस में हर पल हज़ारों बार दम टूटता है 

हर रोज़ हज़ारों मछली मेरे सीने में घुट कर मारती हैं 

बड़ा बेरहम है ,खुदा तू 

मेरी न सही ,उसकी फितरत तो बदल दे !

मछली की ही इस वेदना को कितने शिद्दत से महसूस किया है आपने !जितनी तारीफ की जाये कम है ! किसी से जुड़ कर उसकी सोच से जुड़ना कवयित्री की दार्शनिक सोच परिलक्षित करता है !!

ऐसी ही कितनी रचनाएँ हैं जिनमें व्यथा को अद्भुत प्रवाह मिला है !!ईश्वर से प्रार्थना है आपका लेखन अनवरत यूँ ही चलता रहे 

हिन्द युग्म से प्रकाशित की गई ये पुस्तक अमेज़ॉन पर उपलब्ध है | इसका लिंक है

 https://amzn.eu/d/7fO0tad

आशा है आप भी इन रचनाओं का रसास्वादन ज़रूर लेंगे ,धन्यवाद !!


अनुपमा त्रिपाठी 

 "सुकृति "