हाल-चाल सागर का लेने -
देख- अचंभित ..!!खड़ी मूर्तिवत -
सोच रही यूँ मन में अपने -
बूँद- बूँद से तो सागर बनता -
बनकर सागर भी सागर-
फिर व्यथित क्यों रहता ....?
कहने लगा हंसकर सागर फिर - विस्तार तुमने देखा -
विस्तार तुमने जाना -
विस्तार तुमने लिया -
सभ्यता तुमने पाई -
व्यथा भी तो देखो ......
प्रकृति के नियम का -
परिणाम भी तो देखो --
बूँद एक पल को मुस्कुराई -
जब बात समझ में आई -
कहती है सागर से फिर वो-
बुलबुला है मन का -उठता है -
फूट जाता है ----
क्षण भर का आवेग है -
आता है चला जाता है --
सागर सा विस्तार अगर है --
फिर सागर को क्या डर है ॥?
सह जाए प्रारब्ध --
उसे तो सहना है --
मंथन कर ढेरों विष -
फिर अमृत ही बहना है --
अमृत ही बहना है ........!!!!!!
ek achchhi aur jandaar kavita........:)
ReplyDeleteसिसकते साज में किसकी सदा है
ReplyDeleteकोई दरिया की तह में रो रहा है . (बशीर बद्र )
आज पता चला क्यों ?
Great imagination n well expressed...just like drops of heaven..accumulated in the form of verse..grt work maam..keep it up..
ReplyDeleteकविता का शीर्षक मेरे पिता ने मुझे दिया था -
ReplyDeleteउन्हीं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए ये मेरे मन के भाव हैं -
EXEMPLARY !
ReplyDeleteएक बहुत सुन्दर रचना |मनको छु गई |बधाई
ReplyDeleteआशा
वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
रचना बहुत अच्छी लगी .
ReplyDeleteमंथन कर ढेरों विष -
ReplyDeleteफिर अमृत ही बहना है --
Bahut sundar abhivyakti !
आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
ReplyDeleteबधाई.
Your blessed creativity transcends all contours of immaginative intuition in the domain of innovation. Its subtility is beyond the ambit of wordy appreciation. It benumbs sensitivity but fathoms otherwise unfathomable reality. My compliments for the poetic worthiness.
ReplyDeleteregards,
Ved Prakash Mishra
This Poem Reminds me of Mausiaji!
ReplyDeleteThis poem reminds of Mausiyaji
ReplyDeleteसह जाए प्रारब्ध --
ReplyDeleteउसे तो सहना है --
मंथन कर ढेरों विष -
फिर अमृत ही बहना है --
अमृत ही बहना है ........!!!!!!
बहुत सुन्दर रचना.... वाह!
सादर बधाई...
सागर सा विस्तार अगर है --
ReplyDeleteफिर सागर को क्या डर है ॥?
सह जाए प्रारब्ध --
उसे तो सहना है --
मंथन कर ढेरों विष -
फिर अमृत ही बहना है --
अमृत ही बहना है .
वाह बेहतरीन