30 April, 2011

री कोयल .....!!

प्रसुप्त  तन्द्रिल से ..
 मेरे मन  के -
हंसकर खोल नयन ....
और -
करता हुआ प्रहार ..
तम पर -
तम को चीरता हुआ ..
व्योम पर-
उदित हुआ अरुणाभ ....!
भर  मुकुलित  घन ....!!
स्मित हर्षित मन ...
ग्रहण किया मैंने ...
अंजुली से ...
अंतस के अंचल में ..
अरुषी का पावन स्पर्श ....!!
सहसा .....  
श्रवण किया मैंने ...
कोयल का
मदमात सारंग सा ....
कुहू कुहू का वो
अचल पंचम स्वर ....!!
समन्वित कर ... 
पाया अद्भुत आल्हाद ..!
द्विगुणित करता  उन्माद ....!!


झर झर सी झरती   
माधुरी  की 
अमृत बेला  में ..
सरस ......
भींजता  हुआ ..
सुरमई रागमयी ........ 
अनुरागमयी ..
मेरा मन बोल उठा ......!!


री कोयल ..
कैसा जुड़ गया है ...
तेरा मन मुझसे ..
कहीं भी जाऊं 
तू मेरा साथ 
क्यों नहीं छोड़ती है ..
एक डोर है जीवन की ..
तुझे मुझसे ही जोड़ती है ....!!


तेरे ही सुरों से मेरी 
गूंध कर बिखरे हुए फूलों के स्वरों की 
बन गयी माला ...!!
अब परिमल बयार ..
जीवन सींचती है ....
एक डोर है जीवन की 
तुझे मुझ से ही जोड़ती है ....!!
री कोयल......
कैसा जुड़ गया है ..
तेरा मन मुझसे ..
कहीं भी जाऊं 
तू मेरा साथ 
नहीं छोड़ती है ..
नहीं छोड़ती है ......!!!


सात स्वरों में से कोयल का स्वर पंचम -यानि(प) होता है |पशु -पक्षी अपने कंठ से कोई भी एक ही सुर का प्रयोग कर सकते हैं |मनुष्य ही एक ऐसा जीव  है जो सात स्वर अपने कंठ से निकाल सकता है |कोयल हमेशा पंचम स्वर में ही गाती है ....!इसलिए सात स्वर माँ सरस्वती के अनुपम वरदान हैं मानव जाती को ....!!

स्वर दो प्रकार के होते हैं -
१-चल (जिनके शुद्ध और कोमल दो रूप होते हैं |जैसे रे (रिशब) ग(गंधार )म(मध्यम) ध (धैवत ) और नि (निषाद ))
२-अचल (जिनका सिर्फ शुद्ध रूप ही होता है |जैसे सा (षडज) और प (पंचम))|तो प अचल स्वर कहलाता है |


मदमात सारंग -राग का नाम है |

26 April, 2011

बस सुबह की धूप .....!!

हे प्रभु ..
मांगी थी मैंने  ..
छोटी सी ज़िन्दगी ...
प्यारी सी ज़िन्दगी .....!!
एक टुकड़ा-
धूप की चाह...
एक स्नेहिल-
धूप का स्पर्श ....!!
हवाओं में भी हो ...
भीनी भीनी सी-
एक खुशबू धूप  ...
धूप ही धूप ...


बस सुबह की धूप ...!!

पर जीवन की -
हर पल..पल -पल 
होती हुई  प्रगति में -
ये संभव तो नहीं ....!!
क्योंकि सुबह की धूप
तो आएगी ही ..
हाँ निश्चित ही आएगी ...
लेकिन फिर..
देखते ही देखते 
सिर चढ़ जाएगी ...
बन जाएगी ..
दोपहर की धूप ..
और दे जाएगी ..
चिलचिलाती गर्मी ..
और...
तिलमिलाते एहसास ...!!
और मैं..
कहती रह जाऊंगी...
मुझे चाहिए ..

बस सुबह की धूप ......!!

फिर जीवन भागेगा ...
इस दौड़ में इस भाग में ..
इस भोग में विलास में ..
इस शह में  मात में .. 
होना पड़ेगा शामिल ...
सांझ ढल जाएगी ..
हो जायेगा अँधेरा ...
दूर ...हो जायेगा ..
मुझसे भी मेरा साया....
मुझसे  मेरा  सवेरा .... 
मैं कहती रह जाऊंगी ...
मुझे चाहिए ..

बस सुबह की धूप ...!!!

फिर समय तो -
बीतेगा ही ...
हाँ निश्चय ही ...
आएगी फिर वही ..
सुबह की धूप ...
रहेगी ..रुकेगी ..
कुछ पल मेरे साथ ..
किन्तु ..पलक झपकते ही -
बीत जायेंगे वो ...
गुनगुने-गुनगुने  ..
मीठे मीठे..
रेशमी-गुलाबी   पल ...
और मैं ...
कहती रह जाऊंगी ...
कभी उदास ..
कभी हंसकर ...
मुझे चाहिए ..
बस .......
बस सुबह की धूप .........................................!!!!!!!!!!!
बस सुबह की धूप .


22 April, 2011

जिन खोजत तिन मुतियन मांग भरावत ....!

प्रभु मूरत बिन -
चैन न आवत -
सोवत खोवत 
रैन गंवावत -
जागत पावत -
षडज सुहावत - 
सुर मिलावत-
सुध बिसरावत -

बंदिश गावत -
अति हरषावत -

राग सजावत  -
गुनी रिझावत -


ताल मिलावत -
हिय हुलासावत -

गावत गावत -
दुःख बिनसावत -


धन घड़ी..
शुभ वचन ...
धन भाग ...
मन सुहाग ......!!
स्वागत  गावत ..
चौक पुरावत.....
प्रीत निभावत ..
सजन  घर आवत ......!!!! 

गावत गावत ..
सगुन मनावत .....
जिन खोजत तिन ....
मुतियन मांग भरवात ........!!!! 

जिन खोजत तिन -
मुतियन मांग भारावत ....!!!!


 कोई भी अभिरुचि हमारी हमें इश्वर के समीप ले जाती है |चाहे चित्रकला हो या लेखन हो या संगीत या नृत्य |इन विधाओं में डूब जाने पर स्वतः ही हर्षित रहता है मन ...!

20 April, 2011

अम्मा को प्रणाम ...!!


महुआ ले आई बीन के -
और तिल्ली  धरी है कूट -
आज सजन की आवती -
सो कौन बात की छूट .......!!

अरी... गुड़ होतो तो
 गुलगुला बनाती  ....
तेल   लै आती उधार...
मनो का करों जा बात की ..
मैं आटे से लाचार ........!!!!

आज मेरी  दादी --''अम्मा ''--कहते थे हम सभी उनको, उनकी पुण्यतिथि है |ये बुन्देलखंडी कहावत, वो बहुत सारी  चीज़ों में अपनी लाचारगी को छुपाते हुए, बहुत खुश होकर कहा करती थीं |उनकी लाचारगी अब समझ में आती है |कितना कुछ करना चाहते हैं हम और ज़िन्दगी के इस घेरे में बंध कर क्या - क्या कर पाते हैं ...!!
  समय के साथसाथ पुरानी कहावते ,मान्यताएं सभी तो दम तोड़ रहीं हैं |उनकी दी हुई इस धरोहर को आप सभी तक पहुंचा कर उनको एक भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ |वो क्या गयीं मेरा बुन्देलखंडी भाषा से जैसे नाता ही टूट गया |
मेरा वो --''काय अम्मा ?''पूछना और उनका वो --''कछु नईं बेटा ....''कहना बहुत याद आ रहा है | आज उन्हींकी यादों  के साथ पुनः जी ले  रही हूँ अपना बचपन थोड़ी देर के लिए ....!!

13 April, 2011

मैं नर तुम नारायण .....!!

सुनियोजित सुव्यवस्थित है 
तुम्हारी व्यवस्था ....!
अनियोजित अव्यवस्थित है 
मेरी अवस्था .....!!

बंधा -बंधा चलता हूँ तुमसे -
छोड़ न जाना मुझको .......!!
रक्षा करो मेरी .....!!
शीश नवाऊँ करूँ  नित वंदन -
मैं नर तुम नारायण .....!!
करते हो मेरा पालन ..
रखते  हो मुझे धारण ..
फिर  कहाँ ..
अब हुआ है  पलायन ...?
ये भेद .....
चक्रव्यूह सा ..
अभेद्य क्यों  है ...?
ये भेद मिटाते क्यों नहीं...?
छलते हो मुझे 
मुझसे ही ...
अब क्यों प्रभु ....
सामने रहकर भी  मेरे ...
सामने आते क्यों नहीं ...?

मंदिर में घंटे सी ....
गूँजतीं  हैं
तुमसे ही ..
जीवन की शहनाईयां ..
बसते हो रग-रग  में तो ...
रिक्त आत्मा को मेरी .......
भर कुमुदिनी 
से पराग .....
जीवन का 
प्रज्ञ राग..
सिखाते क्यों नहीं ..? 
छलते हो मुझे ..
मुझसे ही ....
अब क्यों प्रभु ..
सामने रहकर भी मेरे ..
सामने आते क्यों  नहीं ..?

अकर्म से कर्मठता की
राह बड़ी कठिन है ...!
ये छल है
मेरा मुझसे ही ...
मन मेरा मलिन है .....!
पीता हूँ मैं 
सरल -गरल सा बनता
नित ही जो विष .........!
देख रहीं हैं 
आँखें  मेरी ...
जीवन-संघर्ष ..
नैन मिलाकर  वो दृष्टिभेद ..
उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?
छलते हो मुझे 
मुझसे ही ....
अब क्यों प्रभु ...?
सामने रहकर भी मेरे ..
सामने आते क्यों नहीं ..?







10 April, 2011

मेरा दीवानापन ......!!!

दूर...... तक फैली हुई
तन्हाईयाँ ......
बर्फ की चादर में -
लिपटी हुई- सिमटी हुई-
ये खामोशियाँ .....
सर्द हवाओं  सी .......
सर्द एहसास  को हवा देतीं हैं ....!!!!!

फिर ढूँढती हैं 
मेरी नज़रें ...
मेरी साँसे ....
सांस  लेने  का  सबब ....
वो इक  नायाब सुबह का मंज़र ........!!
देख  कर जिसको.....
फिर खिल-खिल  उठे...
बेबाक .......
मेरा दीवानापन .......!!!!!!!!!!!!

अनुपमा त्रिपाठी
 "सुकृति "



06 April, 2011

प्रतीक्षारत मन ........!

पुनश्च जन्म लेती हैं -
कुछ आशाएं ......!
जहाँ जीवित हैं -
भाव भंगिमाएं ....
भावनाएं.......!

नैनो में आस -
मेरी प्रतीक्षा शेष .....!
अभी बाकी है ....
मीन के ह्रदय में भी -
प्यास अभी बाकी है ....

तुम्हारी ही खोज में -
समुद्र की लहरें  -
लहर लहर मारें .....
आशा मेरी सवारें  -
लातीं  मुझे किनारे -

पर.........
मिट  जाते हैं तुम्हारे 
कदमों के निशां......
होता तो  है आभास ..
तुम्हारे अस्तित्व का......
विद्यमान  है प्रभास .......!!


दृढ़ प्रतीति है मेरी   -
द्वार  तुम्हारे -
हे प्रभु .....
देर तो है ......
अंधेर नहीं .......!

किन्तु फिर भी -
रह जाती  है..........
मेरी प्रतीक्षा शेष .....!
और मैं ........
पुनश्च डूब जाती हूँ ..
समुद्र की गहराइयों में .........!!!!!!!!

01 April, 2011

स्निग्ध चांदनी की लोरी ........!!!

शनैः शनैः 
शांत होता है-
 कोलाहल ....
गुमसुम होता-
राग बिलावल -
रचने लगी है लोरी 
निशा बांवरी ....!!
थक कर पाखी भी सोये हैं -
पेड़ों की झुरमुट में खोये हैं -
पलक बंद पर मन जागा  है -
प्रकृति का  साथ निभाती -
जाग रही है कृति भी मेरी -
अकुलाहट बहार आने को -
ढूंढे राहें नवल- नवेली -


             घोर अँधेरा चहुँ दिस फैला -
        जीवन की आपाधापी में -
   हो जाये मन नित ही मैला -
 समय का पहिया-
अनवरत  चले -
संग भाव भरी -
है विभावरी -
 भाव न समझूं -
  शब्द ही तोलूँ ---      
      राग ही लूँ -----  
        अनुराग ना जानूँ---
          नासमझी अपनी पहचानू -
             अवरोहन  का समय हुआ है ..
                वीतरागी सा मन हुआ है .........
                    खुले ह्रदय के द्वार सखी अब ..............


उतर रही है धीरे -धीरे 
स्निग्ध ज्योत्स्ना -
मन के तीरे -
लोभान की -
सुरभी सी -
प्रवाहित-
मन मंदिर में -

महके रातरानी सी -
सुवासित-
घर आँगन में ...!!
शीतलता का-
स्पर्श है ऐसा -
धुलता जाता -
कलुष ह्रदय का -
उजला सा दिन गर्मी देता -
पर शीतल है रात सुहानी ....!!
चन्दन का जैसे हो पानी .....!!!!


निशा की लोरी -
नैन बसे -
निशा की बतियाँ -
नीकी लगें- 
अब उठ जाऊं-
कुछ नया लिखूं .....!
मन कौतुहल शांत करूँ ........................!!
स्निग्ध चांदनी की लोरी सुन ..................!
शीतल मन विश्राम करूँ ....!!!!