13 April, 2011

मैं नर तुम नारायण .....!!

सुनियोजित सुव्यवस्थित है 
तुम्हारी व्यवस्था ....!
अनियोजित अव्यवस्थित है 
मेरी अवस्था .....!!

बंधा -बंधा चलता हूँ तुमसे -
छोड़ न जाना मुझको .......!!
रक्षा करो मेरी .....!!
शीश नवाऊँ करूँ  नित वंदन -
मैं नर तुम नारायण .....!!
करते हो मेरा पालन ..
रखते  हो मुझे धारण ..
फिर  कहाँ ..
अब हुआ है  पलायन ...?
ये भेद .....
चक्रव्यूह सा ..
अभेद्य क्यों  है ...?
ये भेद मिटाते क्यों नहीं...?
छलते हो मुझे 
मुझसे ही ...
अब क्यों प्रभु ....
सामने रहकर भी  मेरे ...
सामने आते क्यों नहीं ...?

मंदिर में घंटे सी ....
गूँजतीं  हैं
तुमसे ही ..
जीवन की शहनाईयां ..
बसते हो रग-रग  में तो ...
रिक्त आत्मा को मेरी .......
भर कुमुदिनी 
से पराग .....
जीवन का 
प्रज्ञ राग..
सिखाते क्यों नहीं ..? 
छलते हो मुझे ..
मुझसे ही ....
अब क्यों प्रभु ..
सामने रहकर भी मेरे ..
सामने आते क्यों  नहीं ..?

अकर्म से कर्मठता की
राह बड़ी कठिन है ...!
ये छल है
मेरा मुझसे ही ...
मन मेरा मलिन है .....!
पीता हूँ मैं 
सरल -गरल सा बनता
नित ही जो विष .........!
देख रहीं हैं 
आँखें  मेरी ...
जीवन-संघर्ष ..
नैन मिलाकर  वो दृष्टिभेद ..
उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?
छलते हो मुझे 
मुझसे ही ....
अब क्यों प्रभु ...?
सामने रहकर भी मेरे ..
सामने आते क्यों नहीं ..?







41 comments:

  1. मंदिर में घंटे सी ....
    गूँजतीं हैं
    तुमसे ही ..
    जीवन की शहनाईयां ..

    kya baat hai..ye panktiya laazwab hai...bhut sundar rachna.

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  2. "बसते हो रग-रग में तो
    रिक्त आत्मा को मेरी
    भर कुमुदिनी से पराग
    जीवन का प्रज्ञ राग
    सिखाते क्यों नहीं ? "
    - ऐसे ही प्रश्नों की तलाश है कविता |
    बहुत सुन्दर लिखा |

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  3. अकर्म से कर्मठता की
    राह बड़ी कठिन है ...!
    ये छल है
    मेरा मुझसे ही ...
    मन मेरा मलिन है .....!
    पीता हूँ मैं
    सरल -गरल सा बनता
    नित ही जो विष .........!
    देख रहीं हैं
    आँखें मेरी ...
    जीवन-संघर्ष ..
    नैना मिलाकर वो दृष्टिभेद ..
    उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?
    छलते हो मुझे
    मुझसे ही ....
    अब क्यों प्रभु ...?
    सामने रहकर भी मेरे ..
    सामने आते क्यों नहीं ..?

    बहुत खूब.
    नर और नारायण के बीच के परदे को भी नारायण रूप में देखिये.पर्दा अपने आप हट जाएगा.

    सलाम.

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  4. यही रीति है। वो सामने रहकर भी नहीं दिखता।

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  5. अकर्म से कर्मठता कीराह बड़ी कठिन है ...!ये छल है
    मेरा मुझसे ही ...
    मन मेरा मलिन है .....!पीता हूँ मैं
    सरल -गरल सा बनता नित ही जो विष .........!
    देख रहीं हैं
    आँखें मेरी ...जीवन-संघर्ष ..नैना मिलाकर वो दृष्टिभेद ..उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?
    छलते हो मुझे
    मुझसे ही ....
    अब क्यों प्रभु ...?सामने रहकर भी मेरे ..सामने आते क्यों नहीं ..?

    बहुत सुन्दर कविता|

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  6. बहुत सुन्दर लाजवाब रचना| धन्यवाद|

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  7. प्रभु ...?
    सामने रहकर भी मेरे ..
    सामने आते क्यों नहीं ..?
    prabhu kabhi ojhal nahi hote , apni bechainiyon ki chhaya aankhon ke aage adhik gahri ho jati hai

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  8. मंदिर में घंटे सी ....
    गूँजतीं हैं
    तुमसे ही ..
    जीवन की शहनाईयां ..
    बसते हो रग-रग में तो ...
    रिक्त आत्मा को मेरी .......
    भर कुमुदिनी
    से पराग .....
    जीवन का
    प्रज्ञ राग..
    सिखाते क्यों नहीं ..?
    ..आपका छलिया मेरा भी छलिया है अनुपमा जी ..अच्छा किया शिकायत लगा दी आपने !
    http://anandkdwivedi.blogspot.com/

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  9. बस यही फ़र्क नही मिटता जिस दिन मिट जायेगा नर रहेगा ही नही……………अति उत्तम रचना।

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  10. नारायण की खोज में नर , अंतस से पुकारता . समर्पण की भावना प्रबल , अराध्य से अपनी शिकायत दर्ज कराने में भी भक्ति भावना की प्रबलता . मन आह्लादित हुआ .

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  11. रमणीय एवं उत्कृष्ट ..

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  12. यह शिकायत अच्छी लगी ...पर सुनेंगे नहीं :-(

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  13. अकर्म से कर्मठता की
    राह बड़ी कठिन है ...!
    ये छल है
    मेरा मुझसे ही ...
    मन मेरा मलिन है .....!

    बहुत बढ़िया, सार्थक पोस्ट !

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  14. अब क्यों प्रभु ....
    सामने रहकर भी मेरे ...
    सामने आते क्यों नहीं ...?

    ईश्वर से यह संवाद मन की जिज्ञासा को और बढ़ाता है और यह भी सत्य है जो इसके करीब जाता है वही इसे पाता है ..आपकी यह रचना भक्ति के भावों से ओत प्रोत है .....आपका आभार

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  15. सामने प्रभु के आपको ही जाना होगा क्योंकि वह तो सब जगह हैं.पर यह भी बात है कि लोग उनके पास जाने से डरते भी हैं !

    प्रभु-समर्पण पर सुन्दर रचना !

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  16. चित्ताकर्षक लगी. ..आँखे नम हो गयी भक्तिमयी कविता से. बहुत सुन्दर ..

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  17. बहुत पहले का एक गाना याद आता है
    "जरा सामने तो आओ छलिये
    छुप छुप छलने में क्या राज है
    यूँ छिप न सकेगा परमात्मा
    मेरी आत्मा की ये आवाज है."
    आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ.कितना
    सुखद अनुभव हुआ आपके पवित्र भक्तिमय विचारों को जानकर,बता नहीं सकता.ईश्वर आपकी भक्ति को नितदिन दो गुनी ,चौ गुनी बदातें ही जाएँ.
    आपका मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा'पर हार्दिक स्वागत है.राम-जन्म पर सादर निमंत्रण है.आइयेगा जरूर.

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  18. शायद पहली बार आना हुआ....


    बहुत उम्दा भावाव्यक्ति....नियमित लिखें.

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  19. याद करता हूँ तो याद आता है कि पहले भी आपको पढ़ा है...अब बुकमार्क किया..नियमित आना होगा.

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  20. छलते हो मुझे
    मुझसे ही
    अब क्यों प्रभु
    सामने रहकर भी मेरे
    सामने आते क्यों नहीं

    यही तो प्रभु की माया है। सामने रहते हुए भी कहते हैं- मुझे खेजो।

    आस्था का अद्भुत चित्रण है इस कविता में।

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  21. बहुत सुन्दर भक्तिमयी रचना| धन्यवाद........

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  22. मन मेरा मलिन है .....!पीता हूँ मैं
    सरल -गरल सा बनता नित ही जो विष .........!
    देख रहीं हैं
    आँखें मेरी ...जीवन-संघर्ष ..नैन मिलाकर वो दृष्टिभेद ..उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?

    बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ....नारायण कब क्या करें नहीं पता चलता इंसान को

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  23. रिक्त आत्मा को मेरी .......
    भर कुमुदिनी से पराग ..... जीवन का
    प्रज्ञ राग..
    सिखाते क्यों नहीं ..?
    bahut achche bhav bahut sundar prarthna !

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  24. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 19 - 04 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  25. अद्भुत बधाई और शुभकामनाएं अनुपमा जी

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  26. "बसते हो रग-रग में तो
    रिक्त आत्मा को मेरी
    भर कुमुदिनी से पराग
    जीवन का प्रज्ञ राग
    सिखाते क्यों नहीं ?"

    अनेक प्रश्नों उकेरती, सवालो के घेरे में जवाबों को तलाशती सुंदर प्रस्तुति. बधाई सुंदर लेखन के लिए.

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  27. भक्तिपूर्ण समर्पण की सुन्दर रचना ...

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  28. पहली बार आना हुआ है....शब्द शैली उच्च कोटि की ...तत्सम शब्दों का खूबसूरत रूप भावों को और सुन्दर बना देता है...सुन्दर रचना

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  29. bahut hi sunder bhavabhivyakti...rom rom mano bhakti ras me leen ho gaya.

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  30. किन शब्दों में आप सभी का धन्यवाद दूं ..समझ नहीं पा रही हूँ |लग रहा है जैसे प्रभु कृपा की अमृत वर्षा हुई है ....!!आपसभी के आशीर्वचनो से जाग उठी है प्रार्थना मेरी ...!!

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  31. अकर्म से कर्मठता कीराह बड़ी कठिन है ...!ये छल है
    मेरा मुझसे ही ...
    मन मेरा मलिन है .....!पीता हूँ मैं
    सरल -गरल सा बनता नित ही जो विष .........!
    देख रहीं हैं
    आँखें मेरी ...जीवन-संघर्ष ..नैन मिलाकर वो दृष्टिभेद ..उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?
    Bahut badhiya...ati uttam...

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  32. सुन्दर भक्तिमय अभिव्यक्ति....
    सादर,,,,

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  33. बहुत सुंदर ... प्रार्थना के शब्द ... और नारायण की स्मित मुस्कान ....

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  34. छलते हो मुझे
    मुझसे ही ....
    अब क्यों प्रभु ...?
    सामने रहकर भी मेरे ..
    सामने आते क्यों नहीं ..?

    बहुत सुन्दर!
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  35. अनुपमा जी,

    रचनाधर्मिता के क्लासिकल अंदाज में सजी हुई रचना बहुत ही भायी, निम्न पंक्तियाँ प्रेरणादायक हैं।

    अकर्म से कर्मठता की राह
    बड़ी कठिन है ...!
    ये छल है
    मेरा मुझसे ही ...
    मन मेरा मलिन है .....!
    पीता हूँ मैं
    सरल -गरल सा बनता
    नित ही जो विष .........!
    देख रहीं हैं
    आँखें मेरी ...
    जीवन-संघर्ष ..
    नैन मिलाकर वो दृष्टिभेद ..
    उत्कर्ष बनाते क्यों नहीं ..?


    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  36. सुन्दर भाव और भक्ति की सरिता में गोते लगाकर आनन्द
    आ गया है जी.

    आपकी अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,अनुपमा जी.

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  37. प्रभु ...?
    सामने रहकर भी मेरे ..
    सामने आते क्यों नहीं ..?
    इस तड़प को जीती कविता ...!

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  38. आभार ह्रदय से ..विभा जी ...हलचल पर इसे लेने हेतु ...!!

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नमस्कार ...!!पढ़कर अपने विचार ज़रूर दें .....!!