मन सोच सोच अकुलाये...
कई बार समझ न आये ...
क्या मैं भी बन जाऊं -
व्यापक व्यवस्था का वो हिस्सा ...
बन जाऊं दलदल ..कीचड़ में ...
और सुस्ताऊं जीवन भर .... !!
या संकल्प लूँ मन ही मन में ..
खिलना कमल को है कीचड़ में ..
तब तो सहेजना होगी ...
कंपकपाती वो ज्योत मन की ..
कभी कभी बुझने सी लगाती है जो -
अपने ही लड़खड़ाते हुए कदम ...
वो उर्जा ..समेटनी होगी ...
सिक्त करना होगा ..रिक्त ह्रदय ....
अपनाना होगा मनुष्य को -
मनुष्य भेस में ही ...
संचार करना ही होगा मन में ...
दिव्य ऊष्मा का ..
स्वयं और स्वजनों के लिए भी ..
तब ही हम सब उस शुभ विचार का -
प्रसार ..प्रचार करते हुए -
इसी धरा पर सब मिल कहेंगे ...
वसुधैव कुटुम्बकम.......!!
वसुधैव कुटुम्बकम.......!!