01 June, 2011

मर्म का भेद ....!!


विषयगत ....
मद में डूबा ..
चिन्मय  विमुख ..
क्यों छुपा हुआ है 
 इंसान
हर समय ..
एक नकाब में ...
मर्म का भेद....
समझ  समझ के भी-
कठिन गणित सा .. 
कुछ समझ न आये -
तो कैसे समझूं ...?
आँख तो दिखती है ..
चेहरा दीखता ही नहीं ...!!



बहरूपियों के 
इस भीड़ भरे मेले में ..
अपनी  राग   गाऊँ 
या न  गाऊँ ...?
दग्ध  सी ... 
दुविधा में पड़ी -
सोच में डूबी ..!!
तपती धूप और ..
सेहरा पर चलते चलते -
जीवन की पूँजी समझ -
मुठ्ठी में रेत ही भरी मैंने .....!!
घडी की टिक-टिक
चलती रही निरंतर ....
वक्त गुजरता गया ..
क्षण-क्षण कटता  गया ...
फिसलती चली  गयी रेत...!!!
और ...
आया हाथ कुछ भी नहीं ...!! 
एक उम्र कितनी  कम है ..
एक  छोटी सी बात ....
समझने के लिए ..!

18 comments:

  1. बहरूपियों के
    इस भीड़ भरे मेले में ..
    अपनी राग गाऊँ
    या न गाऊँ ...?

    बहुत गहरी बात कही है कविता में.

    सादर

    ReplyDelete
  2. बहरूपियों के
    इस भीड़ भरे मेले में ..
    अपनी राग गाऊँ
    या न गाऊँ ...?
    दग्ध सी ...
    दुविधा में पड़ी -
    सोच में डूबी ..!!
    तपती धूप और ..
    सेहरा पर चलते चलते -
    जीवन की पूँजी समझ -
    मुठ्ठी में रेत ही भरी मैंने .....!!bahut hi achhe bhaw

    ReplyDelete
  3. एक उम्र कितनी कम है इक छोटी सी बात समझने के लिये... बहुत सुंदर ! और गहरे विचारों का अवलोकन करती कविता !

    ReplyDelete
  4. इस विषय पर तो जन्मों लग जाएं तब भी न समझ आए यह माया!

    ReplyDelete
  5. यदि समझना चाहे तो पल में समझ आ जाये।

    ReplyDelete
  6. एक उम्र कितनी कम है ..
    एक छोटी सी बात ....
    समझने के लिए ..!

    बहुत सुन्दर सूत्र!

    ReplyDelete
  7. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवब रचना लिखा है! बधाई !

    ReplyDelete
  8. तपती धूप और ..
    सेहरा पर चलते चलते -
    जीवन की पूँजी समझ -
    मुठ्ठी में रेत ही भरी मैंने .....!!
    घडी की टिक-टिक
    चलती रही निरंतर ....
    वक्त गुजरता गया ..
    क्षण-क्षण कटता गया ...
    फिसलती चली गयी रेत...!!!
    और ...
    आया हाथ कुछ भी नहीं ...!

    यही जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है जिसे हम सबसे बड़ी दौलत मान कर सहेजते समेटते रहते हैं वह कब चुक जाती है और हमारे जीवन में अनंत रिक्तता का बेहद पीडादायी अहसास भर जाती है पता ही नहीं चलता ! बहुत खूबसूरत रचना ! बधाई स्वीकार करें !

    ReplyDelete
  9. आपकी रचना पढ़कर इतनी बात मेरी समझ में आई कि जीवन का एक बड़ा हिस्सा गफलत में निकल जाता है। जब जीवन के रहस्यों की पहचान होने लगती है तो मुठ्ठी में से रेत की तरह से जिन्दगी फिसल जाती है........इस बाबत मुझे डा० तश्ना आलमी की गजल का एक मतला याद आ रहा है।
    ++++++++++++++++++++
    जिंदगी जब समझ में आने लगी।
    मौत दरवाजा खटखटाने लगी॥
    डा० तश्ना आलमी
    ======================
    -डॉ० डंडा लखनवी

    ReplyDelete
  10. जीवन एक अनबुझी पहेली तो है ही.आपने अच्छी तरह से अभिव्यक्ति दी है.

    ReplyDelete
  11. मुखौटा , नकाब , स्वांग , बहुरूपिया - एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग - पर शायद क्या ऐसा है ? मुझे लगता है ये सारे चेहरे उसी आदमी के हैं , पर कौन सा असल है , यही पहचानना है .

    ReplyDelete
  12. आपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके पोस्ट की है हलचल...जानिये आपका कौन सा पुराना या नया पोस्ट है यहाँ...........
    नयी-पुरानी हलचल

    ReplyDelete
  13. एक उम्र कितनी कम है ..
    एक छोटी सी बात ....
    समझने के लिए ..!

    बहुत गहन चिंतन...जीवन के यथार्थ को बहुत सटीकता से उकेरा है..

    ReplyDelete
  14. मेरी रचना पढ़ने और अपने विचार देने के लिए आभार ..!!
    एक ही इंसान अलग अलग मुखौटा लगाये या इंसान हर समय एक झूट का मुखौटा लगाये रहे ...
    बात वहीँ आ जाती है ...
    झूठ का मुखौटा बहुत कष्ट देता है ...!!

    ReplyDelete
  15. एक उम्र कितनी कम है ..
    एक छोटी सी बात ....
    समझने के लिए ..!बहुत गहरी बात गहन अभिव्यक्ति...

    बधाई !

    ReplyDelete
  16. मद में डूबा ..
    चिन्मय विमुख ..
    क्यों छुपा हुआ है इंसान
    हर समय ..
    एक नकाब में ...मर्म का भेद....समझ समझ के भी-कठिन गणित सा .. कुछ समझ न आये -तो कैसे समझूं ...?आँख तो दिखती है ..
    चेहरा दीखता ही नहीं ...!!
    insaan ke dohare byaktitva per prakash dalati hui bahut sunder shabdon main likhi anoothi rachanaa.badhaai sweekaren.

    ReplyDelete
  17. एक उम्र कितनी कम है ..
    एक छोटी सी बात ....
    समझने के लिए ..!


    शायद कई जन्म भी कम ही पड़ें. उम्दा रचना.

    ReplyDelete

नमस्कार ...!!पढ़कर अपने विचार ज़रूर दें .....!!