27 September, 2012

बस तुम ....

                                                                     
मन पर धूप सा रूप ...
छाया सा छाया हुआ ...
सूक्ष्म से विराट तक ...
आदि से अंत तक ...
अनादि से अनंत तक .....
प्रात  से रात तक ..
रात से प्रात तक ...
ओर से छोर तक  .....
धूप से छांव तक ...
छांव से धूप तक ...
गाँव से शहर तक .....
शहर से गाँव तक ...
वही घने वृक्ष  की छाँव सा  ....
एक ठौर ....एक ठिकाना ...
परछाईं सा जो सदा साथ चले ....
साथ साथ उड़े भी ...
हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
मन के उजाले में ....
मन के अंधेरे में भी ...
जो रक्षा करे ....
बस तुम ....

56 comments:

  1. साथ साथ उड़े भी ...
    हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
    मन के उजाले मे ....
    मन के अंधेरे मे भी ...
    बस तुम ....
    ..बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया !

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  2. बढ़िया -

    यह पंक्तियाँ प्रस्फुटित हुई तुरंत -



    कान्हा कब का कहा ना, कितना तू चालाक ।

    गीता का उपदेश या , जमा रहा तू धाक ।

    जमा रहा तू धाक, वहाँ तू युद्ध कराये ।

    किन्तु कालिमा श्याम, कौन मन शुद्ध कराये ।

    तू ही तू सब ओर, धूप में छाया बनकर ।

    तू ही है दिन-रात, ताकता हरदम रविकर ।।

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    1. ''यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

      अभ्युत्थ्ससनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

      हे अर्जुन ! जब जब परमधर्म परमात्मा के लिए ह्रदय ग्लानि से भर जाता है, जब अधर्म की बढ़ोत्तरी से भाविक पार पाते नहीं देखता, तब मैं आत्मा को रचने लगता हूं। ऐसी ही ग्लानि मनु को हुई थी –

      ह्रदयं बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरिभगति बिनु।

      जब आपका ह्रदय अनुराग से पूरित हो जाए, उस शाश्वत धर्म के लिए ‘गदगद गिरा नयन बह नीरा’ की स्थिति आ जाय, जब प्रयत्न करके भी अनुरागी अधर्म का पार नहीं पाता – ऐसी परिस्थिति में मैं अपने स्वरूप को रचता हूं। अर्थात् भगवान का अविर्भाव केवल अनुरागी के लिये है – सो केवल भगतन हित लागी।

      यह अवतार किसी , भाग्यवान साधक के अन्तराल में होता है। आप प्रकट होकर करते क्या हैं ? –

      परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

      धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।

      अर्जुन! ‘साधूनां परित्राणाय’ – परमसाध्य एकमात्र परमात्मा है, जिसे साध लेने पर कुछ भी साधना शेष नहीं रह जाता। उस साध्य में प्रवेश दिलाने वाले विवेक, वैराग्य, शम, दम इत्यादि दैवी सम्पद् को निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिये तथा दुष्कृताम् – जिससे दूषित कार्यरूप लेते हैं उन काम, क्रोध, राग, द्वेषादि विजातीय प्रवृत्तियों को समूल नष्ट करने के लिये तथा धर्म को भली प्रकार स्थिर करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट होता हूं।

      युग का तात्पर्य सत्युग, त्रेता, द्वापर नहीं, युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों के स्वभाव पर है। युगधर्म सदैव रहते हैं। मानस में संकेत है –

      नित जुग धर्म होहिं सब केरे। ह्रदयं राम माया के प्रेरे।

      युगधर्म सभी के ह्रदय में नित्य होते रहते हैं। अविद्या से नहीं बल्कि विद्या से, राममाया की प्रेरणा से ह्रदय में होते हैं। जिसे प्रस्तुत श्लोक में आत्ममाया कहा गया है, वही है राममाया। ह्रदय में राम की स्थिति दिला देने वाली राम से प्रेरित है वह विद्या। कैसे समझा जाय कि अब कौन-सा युग कार्य कर रहा है तो ‘सुद्ध सत्व समता बिज्ञाना।

      कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।।’ जब ह्रदय में शुद्ध सत्वगुण ही कार्यरत हो, राजस तथा तामस दोनों गुण शान्त हो जाय, विषमताएं समाप्त हो गयी हों, जिसका किसी से द्वेष न हो, विज्ञान हो अर्थात् इष्ट से निर्देशन लेने और उस पर टिकने की क्षमता हो, मन में प्रसन्नता का पूर्ण संचार हो – जब ऐसी योग्यता आ जाय, तो सतयुग में प्रवेश मिल गया। इसी प्रकार दो अन्य युगों का वर्णन किया और अन्त में –

      तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुं ओरा।।''

      रविकर जी आज सुबह ही ये लेख पढ़ा और इस रचना को लिखने की प्रेरणा मिली !बहुत आभार आपका आपको इसमे गाता का सार दिखा !!

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  3. बेहद ही अनमोल....
    फिलवक्त मै कहूँगा..
    आप ही आप अनुपमाजी...
    बेहद ही सुन्दर संयोजन...

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  4. बेहद ही अनमोल....
    फिलवक्त मै कहूँगा..
    आप ही आप अनुपमाजी...
    बेहद ही सुन्दर संयोजन...

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  5. tum aur hum aur koi seemaye nahin... bahut khoob ma"m...

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  6. कल 28/09/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. संबंधों का कोई रूप नहीं, कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं

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  8. बाहर भी तुम.....भीतर भी तुम...
    बस तुम..
    बहुत सुन्दर अनुपमा जी...
    सादर
    अनु

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  9. हर जगह ...बस तू ही तू ....ईश्वर की निकटता का एहसास कराती सुंदर अभिव्यक्ति ...

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  10. मन के अंधेरे मे भी ...
    बस तुम ....
    ..बहुत ख़ूबसूरत...आख़िरी की पंक्तियाँ....

    RECENT POST : गीत,

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  11. बस तुम तुम और तुम ..
    बहुत बढ़िया.

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  12. बहुत सुदर, क्या कहने

    हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
    मन के उजाले मे ....
    मन के अंधेरे मे भी ...
    बस तुम ....

    छोटे छोटे शब्दों की माला, वाकई मन को छून वाली है..

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  13. वाह ,क्या लड़ी पिरोई है शब्दों और भावनाओ की , हर शब्द सन्देश देता हुआ और भावनाए दिल में घर करती हुई . बहुत सुँदर दी. और गीता उपदेश पढ़कर माँ प्रफुल्लित .

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  14. परछाईं सा जो सदा साथ चले ....
    साथ साथ उड़े भी ...
    हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
    मन के उजाले मे ....
    मन के अंधेरे मे भी ...
    जो रक्षा करे ....
    बस तुम ....
    नि:शब्‍द करते शब्‍द ... उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति

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  15. छोटे छोटे शब्दों की माला बहुत सुदर हैं....

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  16. सार तुम आधार तुम
    कल्पना का विस्तार तुम..... आध्यात्म एक निष्ठा है और निःसंदेह है

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  17. सरल शब्दों में गहरी बात कह दी. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !

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  18. सरल शब्दों में गहरी बात कह दी. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति. !

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  19. बहुत आभार रविकर जी ...

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  20. बस ...'बस तुम' के सिवा कुछ भी नहीं..

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  21. waah...behad khoobsurat prastuti..!!bahut bahut badhai sweekar karen.

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  22. कहाँ है रात और प्रात, जीवन और मरण, ओर छोर, धूप छाँव, अंधकार और प्रकाश.. एक वर्तुल है और बस जहाँ एक समाप्त होता है या होता हुआ प्रतीत होता है दूसरा थाम लेता है.. चल रहा है अनंत काल से अनंत तक..
    बहुत अच्छी रचना!!

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  23. मन के उजाले में ....
    मन के अंधेरे में भी ...
    जो रक्षा करे ....
    बस तुम .......wah,kya likha hai.....

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  24. सहजता से एक बहुत ख़ूबसूरत रचना रच डाली..अनुपमा जी..

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  25. अति सुंदर पंक्तियाँ .....

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  26. परछाईं सा जो सदा साथ चले ....
    साथ साथ उड़े भी ...
    हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
    मन के उजाले में ....
    मन के अंधेरे में भी ...
    जो रक्षा करे ....
    बस तुम ....लाली मेरे लाल की जीत देखूं उत लाल ,.......सुन्दर मनोहर प्रस्तुति .

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  27. मन के अँधेरे में जो रक्षा करे ,वह तुम !
    यही एक विश्वास तो सब है !

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  28. मन के अंधेरे में भी ...
    जो रक्षा करे ....
    बस तुम .
    यही एक विश्वास तो सब है !

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  29. वाह !
    कोई कहाँ जा कर पिटे
    कोई तो जगह कहीं बचे !

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    1. सही है ...समस्त भुवन मे प्रभु का डेरा ...

      बहुत आभार सुशील जी ॥

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  30. बस वो ही वो तो है …………सुन्दर भाव

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  31. अत्यंत गहन आध्यामिक चिंतन युक्त परमेश्वर पर अटूट आस्था ओर जीवन के प्रति स्नेह ओर विश्वास का आलंबन ....आभार शुभ शुभ
    सादर !!

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  32. सुंदर रचना |
    इस समूहिक ब्लॉग में पधारें और हमसे जुड़ें |
    काव्य का संसार

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  33. हर लम्हा ..हर घडी ..हर पल... बस तू ही तू .... दीदी क्या समर्पण का भाव व्यक्त किया है आपने sarahneey.

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  34. हर लम्हा ..हर घडी ..हर पल... बस तू ही तू .... दीदी क्या समर्पण का भाव व्यक्त किया है आपने

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  35. हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
    मन के उजाले में ....
    मन के अंधेरे में भी ...
    जो रक्षा करे ....
    बस तुम ....

    es sundar rachana ke liye sadar abhar Anupama ji .

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  36. मन की कोमल समर्पण भावनाएं भरपूर व्यक्त हैं इस कविकता में । बहुत सुंदर ।

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  37. पूर्ण समर्पण की बहुत ही सुन्दर व्याख्या .......फिर चाहे वह आसक्ति किसी के भी प्रति हो ....प्रेमी ,पति या परमेश्वर ........

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  38. इतने गूढ़ दर्शन की इतनी सुंदर व्याख्या घने वृक्ष की छाँव--परछाई सा साथ एक
    अलोकिक अनुभूति -बधाई अनुपमा
    ,

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  39. आदि से अनंत तक....बहुत गहरी अभिव्यक्ति!

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  40. इस'तुम'की व्याप्ति भी कैसी असीम,अरूप किन्तु अ-भावों से परे !

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  41. bhavnao se paripurit ant se anant ki taraf adrishy prasthan me chupa EK TUM

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  42. आध्यात्मिकता से ओतप्रोत

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  43. विश्वास पर और दृढता से डटे रहने की आकांक्षा. बहुत गहरी अभिव्यक्ति!

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  44. हृदय से आप सभी का आभार ...!!

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  45. हर लम्हा ...हर घड़ी ...हर पल .....
    मन के उजाले में ....
    मन के अंधेरे में भी ...
    जो रक्षा करे ....
    बस तुम ....

    बहुत सुंदर ! समपर्ण की ऊँचाई है यह..हर पल उसके साथ का अनुभव करना..

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नमस्कार ...!!पढ़कर अपने विचार ज़रूर दें .....!!