19 October, 2013

क्या कहता है मन .....

बांधता है वक़्त  सीमा में मुझे ......
भावों की उड़ान तो असीम  है ....
अनंत  है .....
तो फिर ...  क्या है जीवन  ....??
चलती हुई सांस .....
अनुभूत होते भाव  ....
बहती सी नदी ...
सागर सा विस्तार ....
आज शरद पूनम की रात
 झरता हुआ चन्द्र का हृदयामृत ...
या रुका सा मन ....
जो मुसकुराता हुआ ....
खोज लाता है गुलाबी सुबह का एक टुकड़ा .....
अपनी किस्मत सहेज ...
मुट्ठी में भर कर ....!!

भरी दोपहर  भी  ढूंढ लेता है मन  ....
पीपल की छांव ....
वो अडिग अटल विराट वृक्ष के तले ....!!
घड़ी भर बैठ ....
मिल जाता है .........
ज़िंदगी के गरम से एहसासों को आराम ....
फिर कुछ गुनगुनाती हुई .....शाम की ठंडी बयार । ....

और फिर पहुँच जाता है मन .....
अम्मा (दादी)के चूल्हे के पास ...
हाथ से सेंकती हैं अम्मा ....
एक एक फूली फूली रोटी ....
चूल्हे पर ...
 बुकनू ...शुद्ध घी और गुड़ ....!!

और माँ भी तो आस पास ही हैं ....
चौका समेटतीं ....!!!!!!
जब माँ की आवाज़ कानो मे गूँजती है .....
परों से भी हल्का मन ....
कब नींद से  घिर जाता है ...
पता ही नहीं चलता ....!!
सुबह उठती हूँ फिर .....
जब  गुनगुनाता है जीवन ....!!!!!!
यही तो ज़िद है मेरी .....
जब तक जीवन गुनगुनाता  नहीं ....
मैं सोती ही रहती हूँ ....!!
देखो तो .....गुनगुनाने लगी है ....
गुलाबी शिशिर   सी प्रात की धूप अब ......!!



31 comments:

  1. जीवन जब गुनगुनाने लगता है...पांवों में थिरकन भर जाती है तब मानो सारा अस्तित्त्व झूमने लगता है संग संग...और कहीं बैठा परमात्मा भी मुस्कुराने लगता हो कुछ और...

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  2. जो मुसकुराता हुआ ....
    खोज लाता है गुलाबी सुबह का एक टुकड़ा .....
    अपनी किस्मत सहेज ...
    मुट्ठी में भर कर ....!!
    अनुपम भाव संयोजन ...

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  3. ,बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !

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  4. आह रे मन !!!!
    बहुत ही प्यारे भाव पिरोय हैं.

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  5. और फिर पहुँच जाता है मन .....
    अम्मा के चूल्हे के पास ...
    हाथ से सेंकती हैं अम्मा ....
    एक एक फूली फूली रोटी ....
    चूल्हे पर ...
    बुकनू ...शुद्ध घी और गुड़ ....!!
    शानदार .....

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  6. नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (20-10-2013) के चर्चामंच - 1404 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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    1. हृदय से आभार अरुण ......!!

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  7. हृदय से आभार शिवम भाई ....!!

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  8. प्रकृति-माँ के खूबसूरत चित्रण से माँ के स्नेह तक एक समां बाँध दिया है आपने.. शब्द स्वतः प्रवाहित होते जाते हैं..
    एक छोटी सी त्रुटि की ओर इंगित करने की धृष्टता कर रहा हूँ..
    "भरी दोपहर भी ढूंढ लेता है ....
    पीपल की छांव ...."
    भरी दोपहर भी ढूंढ लेती है.. !!

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    1. आभार सलिल जी हृदय से सहृद टिप्पणी के लिए ...
      भरी दोपहर ढूंढ लेता है मन ....
      पीपल की छांव ....
      यहाँ मन शब्द जोड़ने से आशा है अब ठीक वाक्य बन गया ...!!

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    2. जी!! आभार आपका कि मेरी तुच्छ सलाह को आपने स्वीकार किया!!

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  9. शिशिर की गुलाबी प्रातः तभी गुनगुनाती है जब ये मन गुनगुनाता है। जब तक मन मुस्कुराये तो जीवन भी गुनगुनाये।

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  10. बढ़िया बिम्ब समेटे हैं व्यतीत के ,मन तो स्वयं एक अपूर्व सत्ता है स्वतन्त्र। चाहे तो धुप को चन्दअनिया कर दे।

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  11. बढ़िया बिम्ब समेटे हैं व्यतीत के ,मन तो स्वयं एक अपूर्व सत्ता है स्वतन्त्र। चाहे तो धुप को चन्दअनिया कर दे।

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  12. खोज लाता है गुलाबी सुबह का एक टुकड़ा .....
    अपनी किस्मत सहेज ...
    मुट्ठी में भर कर ....!!
    अनुपम भाव
    वाह!!!वाह!!! क्या कहने

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  13. बहुत जरूरी होता है मन के लिए इसी प्रात की रश्मि लिए, ऊष्मा लिए जीवन के सर्द, तिमिर पथों से गुज़र जाना. तभी तो जीवन का सच्चा आनंद है. बहुत प्यारी कविता.

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  14. और माँ भी तो आस पास ही हैं ....
    चौका समेटतीं ....!!!!!!
    जब माँ की आवाज़ कानो मे गूँजती है .....
    परों से भी हल्का मन ....
    कब नींद से घिर जाता है ...
    पता ही नहीं चलता ....!!
    सुबह उठती हूँ फिर .....
    जब गुनगुनाता है जीवन

    KHUBSURAT BHAW

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  15. बेहद उम्दा प्रस्तुति |

    आइये, कीजिये:- "झारखण्ड की सैर"

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  16. मन विचरता है सतत पर,
    ठहरता है तनिक क्षणभर,
    जगह जो अनुकूल दिखती।

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  17. असीम भावों की उड़ान की सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  18. चलती हुई सांस .....
    अनुभूत होते भाव ....
    बहती सी नदी ...
    सागर सा विस्तार ....
    आज शरद पूनम की रात
    झरता हुआ चन्द्र का हृदयामृत ...sundar

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  19. बहुत बढ़िया ऊंचे पाए की रचना है यह।

    हाइकु सा जीवन हमारा

    खिले हमेशा। सुन्दर प्रस्तुति।


    अम्मा रहे पास। गुनगुनाती हर प्रात :

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  20. अनुपम..अनुपम...अनुपम...

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  21. परों से भी हल्का मन .
    ..................................... nc post

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  22. हृदय से आभार आप सभी का अपने बहुमूल्य विचार देने हेतु ......!!

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  23. यह मन ही तो है जो हमें हर उस स्थान पर ले जाता है जहाँ हम जाना चाहते हैं जहाँ अपने हैं, अपनों का प्यार है और ठंडी छाँव है वरना यह तन तो बंधा है एक ही खूंटे से ! अद्वितीय रचना अनुपमा जी ! बधाई स्वीकार करें !

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  24. और माँ भी तो आस पास ही हैं ....
    चौका समेटतीं ....!!!!!!
    जब माँ की आवाज़ कानो मे गूँजती है .....
    परों से भी हल्का मन ....
    कब नींद से घिर जाता है ...
    पता ही नहीं चलता ....!!
    ...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !

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नमस्कार ...!!पढ़कर अपने विचार ज़रूर दें .....!!