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मन आलोकित कर देता
प्रातः खिले सूर्य जैसा
खिलता है उर सरोज
स्पर्श सुधियों का ऐसा
एक अडिग विश्वास
सतत संग चलता है
नैनों मे इक सपन
सुनहरा सजता है
साथ चले जो साथ निभाए
नित नित हर पल
अमृत रस से भरा
घड़ा जो छलकता है
सोकर भी जागी
आँखों में बसती है
सुध बुध नहीं खोती है
ममता जगती है
प्रकृति सी प्राकृत
ये शीतल रात्रि में भी
ओस के मोती
भर भर प्रभास पिरोती है
व्याप्त नीरवता में
कैसा है राग छिपा
पा विस्तार स्वरों का
गीतों सी बहती है
व्याप्त नीरवता में
ReplyDeleteकैसा है राग छिपा
पा विस्तार स्वरों का
गीतों सी बहती है
नीरवता का अपना ही राग है, जो समझ सके तो सुने उसे गुनगुनाते हुए... बहुत सुन्दर, बधाई.
बहुत-बहुत सुन्दर कविता!!
ReplyDeleteअति सुंदर काव्य रचना
ReplyDeleteजो इस राग के नाद को सुनता है वह सच उनका प्रिय पात्र होता है ।
ReplyDeleteहृदय से आभार शिवम भाई ...ब्लॉग बुलेटिन पर आपने मेरी कृति का चयन किया ....!!
ReplyDeleteकविता अच्छी लगी।
ReplyDeleteसोकर भी जागी
ReplyDeleteआँखों में बसती है
सुध बुध नहीं खोती है
ममता जगती है
बहुत सुन्दर भाव ... अच्छी कविता ..
इतने निर्मल भाव के शब्दों का साथ तो राग ललित सा असर आने आप हो जाता है. अति सुन्दर.
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteप्रकृति स्वयं में मुक्त जीवन राग है।
ReplyDeleteसुध बुध नहीं खोती है
ReplyDeleteममता जगती है
बहुत सुन्दर भाव ... अच्छी कविता .
बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteअच्छी कविता.....
ReplyDeleteममता प्रकृति की हर गतिविधि में परिलक्षित होती है...सुंदर अभिव्यक्ति...
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ReplyDeleteएक अडिग विश्वास
सतत संग चलता है
नैनों मे इक सपन
सुनहरा सजता है
कोमल भावों से सजी कविता..