27 November, 2011

एक दिन................!!

इस  धरा पर ....
कई साल पहले ...
जन्मी थी एक   दिन  ...

माँ का स्पर्श ..याद है मुझे ...
आया आया ..दही वाला आया ..
सुन सुन कर ...
थाम कर उंगली उनकी ..
खिलखिलाकर ...
चली थी एक  दिन....

माँ ने चलाना ही सिखाया ...
और  कुछ ...
और बहुत कुछ ..पा जाने की इच्छा जब जागी ....
दौड़ना ..मैंने सीख ही  लिया ..
एक दिन..!!

छोटी सी ललक थी ..
बढ़ते बढ़ते ..
अपने अधिपत्य की कामना बनने लगी ......
और  कुछ ...
और बहुत कुछ पा जाने की इच्छा जब जागी ...
 अंधी दौड़ में भागते हुए ...
जग से प्रेम त्याग ..
अपनाया ..द्वेष ..इर्ष्या...छल ..राग ..
 फिर ..कपट  करना..मैंने  सीख ही  लिया ..
 ...एक दिन........!!

भागते भागते इस दौड़ में ..
 दौड़ को जीतने  की लालसा....
जब जागी ......
साम,दाम,दंड भेद ...
झूठ पर भी हो न खेद ...
और ..फिर ...
जग से मुखौटा लगाना भी ...
मैंने सीख ही लिया...
एक दिन....  ..!!

जीतने  लगी  मैं ...
लगते रहे मुखौटे ...
भरते रहे भण्डार ...
सूर्यास्त की बेला हुई .....
छाने  लगा अन्धकार ...
छूट जाने के डर से घिरी हुई  ........
सब छूट जाये पर,
छूटता नहीं मोह अब ...
न सखी न सहेली ....
बैठी हुई ..नितांत अकेली
फिर भी ......
देखो तो पापी मन मेरा  ...!
Painting by Abro khuda bux.
झगड़े और करे मेरा..तेरा  ..!!
डर-डर कर रहना सीख रहीं हूँ अब ...


क्षमा करना प्रभु ...
तुमने दिया था जन्म मुझे ..
खुली खुली इस सुंदर ...
मनमोहक   धरा पर . ..!
किन्तु ..मेरे द्वारा  बसाई ...
इस दुनिया के पिंजरे में क़ैद हो  ...
अपने आप से दूर ........
बहुत दूर  ....
और निरंतर दूर होती हुई ...
पिंजरबद्ध हो..
 रहना...मैंने...सीख ही लिया...
 एक दिन........!

हाँ ...अपनी इस काया के लिए जीना..
मोह में बंधना .. माया के लिए जीना ..
मैंने सीख ही लिया...
 एक दिन ..............!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

24 November, 2011

मेरा प्रतिबिम्ब ही है.. जीवन ...!!


जैसा  पानी का रंग है ...
 वैसा मन  का रंग है ...
 और जीवन ..का रंग है ...
 कोई रंग ही नहीं ...
पर दिया अपना रंग मैंने इसे ...
और रंग दिया जीवन अपने ही रंग में ...


या ...
जैसा  गीली माटी का रूप है ....
वैसा मन का रूप है ....
और जीवन का रूप है ...
अपना कोई स्वरूप ही नहीं....
पर चाक पर  दिया -
एक  रूप मैंने इसे ..
और ढाल लिया जीवन..
 अपने मन के स्वरूप में ..


शीश महल की तरह ...
अपनी ही छब दिखाता है ये जीवन ....
विविध रंग-रूप में सिमटा...लिपटा..या फैला ....
मेरा  ही  प्रतिबिम्ब है  जीवन ...
मेरा ही रंग ...मेरा ही रूप ...
मेरी ही दृष्टि ...छाई चाहूं ओर...
चाहूं ओर ..मैं ही  हूँ ..
मेरे ही हर दान से मिला..
 प्रतिदान वरदान.....
हर रोध से मिला..
 अवरोध ..प्रतिरोध...
हर क्रिया  से मिली प्रतिक्रिया ...
और हर बिम्ब से मिला प्रतिबिम्ब ...
हाँ निश्चय ही .....


मेरा  प्रतिबिम्ब ही  है.. जीवन ...!!


Oct.,2011,when I was in U.K ,one of my articles was published in the news paper titled , ''The gift of music .''for  ''Thought of the week.''Please spare a few minutes if u can.Thanks.

22 November, 2011

तुम मेरी पहुँच से दूर क्यों हो ..?

प्रभु मैं हूँ -
तुम्हारी ही कृति  .. ..
मनुष्य रुपी ये तन ..
और गुण- अवगुण से भरा मन .......
तुम्हीं ने तो दिए ...
प्रसाद रूप मैंने ग्रहण किये ...!


इन्हीं को साथ ले कर...
चलती हूँ मैं......
तुम्हारे पास पहुँचने  का...
मन है ...मेरा ...
और अब यह भी प्रण है मेरा .. 
तुम्हारी इस कृति से ...
सुकृती बनना है मुझे ... 
तुम तक  पहुँचना है मुझे ..!!

राह दिखती है ..
तुम तक पहुंचती हुई..
और फिर मुड़ जाती है ... !!
ये कैसे असत्य के
घेरे से घिर गयी हूँ मैं ... .....
कितनी ही कोशिश कर लूँ ..
तुम तक पहुँचने की ...!!
तुम मेरी पहुँच से दूर क्यों हो ..?
क्या  पात्रता  नहीं  है मुझमे ..?
मेरी आहत नाद की अर्चना ...
मेरी अनाहत नाद की आराधना ...
शायद मेरे सत्य में...
मेरे कत्थ्य में ..
अभी भी वो 
तत्थ्य नहीं ..वो सत्य नहीं ...
जो तुम तक पहुँच सके......!!
मोड़ बढ़ते ही जाते हैं ..
जीवन यात्रा चलती ही जाती है ..
अंतहीन ...अनवरत ..निरंतर ...
किन्तु अटल विश्वास है ..
तुम पर ...स्वयं पर भी ..
खोज लूंगी वो निधि एक दिन ...
तुम तक पहुँचने की विधि एक दिन ...!!


मन  चिंतन ...
घिरी हुयी विचारों से ...
अब सोचती हूँ...
दीन हीन मलिन ...
शबरी में थी ..
कैसी ..भक्ति..आसक्ति ...
कैसी वो अदम्य शक्ति ....!!
खिला सकी प्रेम वश ..
अपने जूठे बेर भी तुम्हें ...
आज ..
भले ही वो युग नहीं है ...
पर सबकुछ तो झूठ
अभी भी  नहीं है ...
दमकती है ..चमकती है ...
दूर ....एक किरण ...

अभी भी दिखती है-
निश्छल मुस्कान...
कुछ चेहरों पर...
कुछ सत्य बाकी है ..
निश्चित ही धरा पर ... 
देता है नवचेतना ..
ये उगता हुआ सूर्य मुझे ...
चलना है चलना है ...
चलते ही जाना है ...
 जीवन पर्यन्त..
प्रयत्न करते रहना है ....
त्याग  कर असत्य का ..
ये  ताना-बाना...
सशक्त सत्य को खोजते हुए .. 
तुम तक पहुँचना ही है एक दिन ...!!


कुछ  समय  पूर्व परिकल्पना पर छपी थी ये कविता आज इसे ब्लॉग पर डाल रही हूँ | 

15 November, 2011

कितने दिनों की प्रतीक्षा बाद ...!!


कितने  दिनों की -
प्रतीक्षा  बाद ...
जब  सुनी  वो -
ममतामयी ..करुणामयी ..
अविरल ..अनवरत ...
अनाहत नाद ...!!!

सौभाग्य के बादल...
उमड़-घुमड़ कर ..
घन घन करते ...ढोल बजाते ....
खोले जब उर के द्वार ...!
देखा ...........

नवरंग से दुकूल लिए ...
सप्त रंग बहार लिए ..

श्रुति में द्युति लिए ...
पाहुना घर आया है ...!!!!!!

हाँ ..उसी के लिए ही मैंने -
 भुवन सजाया है ..!

देखो भवन  मेरा -
रंगीन सुकृति से सजा है ...!

झड़ गयी है धूल -
कई दिनों से पसरी थी ..
मनः पटल पर... जमी थी जो ....
ढेरों..ढेरों  परतें उसकी ...!!

बगिया मेरी, छिटकी हुई-
कुछ बूँद पश्चात्  ही ..
हरी-भरी ...
साफ सुथरी सी 
लग रही है ...!!

कोने कोने में-
अहेतुक बिखर गयी है ..
संविद मुस्कान मेरी ... 
अज्रस  उर्जा से संचारित -
मेरे मन की सरिता -
बढ़ गयी है -
एक नए आवेग से -
अगले पड़ाव पर -
जीवन के कुछ नए आयाम पाने के लिए.....!!




*अहेतुक -अकारण 
*संविद- चेतनायुक्त
*अज्रस  -बिना रुके या लगातार 

09 November, 2011

सिलसिला...जीवन का .....!!!!!!!



 देख रही हूँ ...
शबनमी सर्द रात..
आती हुई ...
और फिर  ....
और गहराती हुई ...



नींद मुझसे कोसों दूर जाती हुई ....
एक  याद पल-पल..
आती हुई ...
और फिर....
और पास आती हुई ...

नाज़ुक से दिल को बहकाती  हुई ...
दो बूँद आंसू गालों पर...
 ढलकाती  हुई ....
और फिर ...
और उदास कर जाती हुई ...


फिर ...झींगुर  की  आवाज़....
मन भरमाती हुई ....
जैसे ..जागते जीवन का राग..
 सुनाती हुई ...
 और फिर.... सोई हुई आस जगाती हुई ...

आँखों ही आँखों में रात..
फिर जाती हुई ...!!
बीत  जाती हुई ......!!
और फिर....
जागी हुई सी आस...मेरे पास  छोड़ जाती हुई...........................................................................................................................................................

07 November, 2011

अब तो बेड़ा पार करो खेवैया ...!!

     प्रभु तुम ..
हो दयाल ..रहो कृपाल ..
यूँ बसो सदा ही ..
मन  में मेरे ...

देख सको अपनी चितवन से  ..
सांझ -सबेरे मुझे जतन से ...
नित मन क्यों घिरता अंधड़ से ...?
नहीं दूर हुई तुमरे सिमरन से ...!!


लीन तुम्हारे प्रेम में प्रभु ...
भय से व्याकुल फिर क्यों होती ...?
painted by:Pragya Singh.
नित  ही  भय  की मन में चलती...
आंधी  से फिर क्यों   घिर  जाती  ...?
 धूल धूसरित क्यों   हो जाती...?
क्यों निर्भीक नहीं हो पाती.....?
एक अजब से डर से डगमग ..
क्योंकर डोले जीवन नैया ...?
अब तो अभय  दान  दो प्रभु .......
राखो लाज हमारी,गिरधारी ...
बेड़ा पार करो खेवैया ....
हे बंसी बजैया ...!!
*कृपया एक नज़र इधर भी डालें...http://swarojsurmandir.blogspot.com/

01 November, 2011

एक परीक्षा है.......जीवन ....!!

ये कैसी प्रक्रिया है .....
क्या मेरी प्रतिक्रिया है...
समेटना ...सहेजना ...संजोना ...संवरना-संवारना  .....
खिलना- खिलाना  ...
दूर रहकर भी बहुत पास रहना ...या ...
पास रहकर भी बहुत दूर रहना ....

जीवन की  आकांक्षा .....
जीते रहना ...सांस लेते रहना ...
 पल-पल खोना बहुत ...पाना कम ...
फिर भी निरंतर आगे ही बढ़ते रहना ...
अदम्य साहस के साथ ....
और उस  ...और  पाने   की ...
एक  प्रतीक्षा पुनः करते रहना .......
और फिर ..
उस प्रतीक्षा के आकार  को साकार करने हेतु ....
निराकार प्रेम बाँटते  रहना ......
एक परीक्षा है.......जीवन ....!!

 प्रकृति  की मौन धारा   से ...
मुझमे प्रवाहित होता हुआ ...आकर्षण है ...
गुरुत्वाकर्षण है...
 दिव्यता है ...
भव्यता है ...
सूक्ष्मता है ....
दक्षता है ....
एक परीक्षा है जीवन .....!!