20 March, 2013

तुम्हें पुकारती .......!!


राग के भाव ...मन के भाव कितने विचित्र हैं ...इतनी सुंदर राग बसंत में सुख और दुःख एक साथ कैसे गाया जा सकता है ....?आप  खुद भी सोचिये.. .......बहुत  हंसने  के  बाद  एक  घड़ी  शांत  बैठने  का  मन  करता  ही  है
...है न  ...!
क्यों सहसा मन के भाव बदल जाते हैं .....??क्या हमारे मन पर सिर्फ हमारा ही नियंत्रण है ....?या सच मे हम
सिर्फ कठपुतली मात्र .........!!ईश्वर ही रखते हैं हमारे मन पर नियंत्रण ....?


चौबीस घंटे ....इन आठों प्रहारों में क्या हम पूरे समय खुश रहते हैं ...?या ....क्या हम पूरे समय दुखी रहते हैं ...????ताज्जुब है .....एक ही दिन में....कभी मन खुश कभी उदास .......सभी भाव जीता है !....!!
मन की बातें निराली ही हैं ....

जितना ही ईश्वर के समीप हम  जाते हैं ....उतना ही दुख गहराता है .....ये सोच कर कि प्रभु से कितनी दूर
...........हैं हम ....!!
ऐसा ही तो ज्ञान मार्ग भी है ......
जितना पढ़ते हैं ...उतना ही समझ में आता है की हम कितना कम जानते हैं .....
जब राग का विस्तार लेती हूँ  ....तभी स्वयं का विस्तार भी समझ में आता है ....बड़े बड़े गायक जिस राग को गाते चले जाते हैं ,उसे थोड़ी देर ही गा कर लगता है स्वरों को दोहरा ही रही हूँ ....साधक के लिए उसकी कला ही प्रियतम है ....उसका सबकुछ ....!!कला तो एक  है ...कभी न खत्म होने वाली .....इसी कला को साधने हेतु निरंतर प्रार्थना की जाती है .....!!और हर कलाकार के अंदर रहता है एक सहज विरह भाव ...

बसंत पर विरह की कविता न हो मन नहीं मानता ...या शायद बसंत चर्चा ही पूर्ण नहीं होती.....!!जितना आनंद बसंत की श्रृंगार रस की कविता पढ़ कर आता है ...उतना ही प्रबल अमिट भाव विरह श्रृंगार भी देता है ....!!और .....

जो छाया हो बसंत चाहूँ ओर ....
मेघ गरज गरज  मचा रहे हों शोर ....
फिर सहसा बरस भी जाएँ पुरजोर ....

और..... सुर ही ना  सधे .......अविरल अश्रुधारा सी बहती रहे ....बहती रहे .....

हृदय की वेदना का कोई अंत ही नहीं .....


*******

बिन मौसम जो छाए थे  ... बदरा ....
नैनन   बरस  घुलता था  कजरा  ....


निर्जन पथ, छाई ऐसी कारी अंधियारी ....
दामिनी प्रकाश पुंज वारती ...!!


 मैं सूने नयनन सों.....
पंथ थी बुहारती ...!!


देर तक खड़ी रही ...
दूर तक निहारती ....!!


मौन वेदना मेरी ....
थी तुम्हें पुकारती .......!!



सशक्त  वंदना   मेरी .....
है तुम्हें पुकारती ....!!
राग  बसंत तुम्ही से है ....
बसंत बाहर तुम ही से है ...
हे निर्गुण ...अब बन सगुण  ....
नाद मेरी.... स्वर मेरे ...
दरस दो ........ पथ के , जीवन रथ के  सारथी .....!!

38 comments:

  1. मौन वेदना मेरी ....
    थी तुम्हें पुकारती .......!!.bahut badhiya ....mn par apna niyantran kahan?

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  2. आपने सच कहा अनुपमा जी ,,,कि मन एक ही दिन में....कभी खुश कभी उदास .सभी भाव का जीता है !....!!

    Recent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,

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  3. हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं...

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  4. बहुत सुन्दर ..बिरह के भाव हैं पर शब्द फिर भी बहुत मधुर हैं.

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  5. हर शब्द पुकार और प्रार्थना की शक्ति लिये हो तो ईश्वर भी विवश हो उतर आते हैं।

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  6. आपने कितना दुरुस्त कहा कि ... हर कलाकार के अंदर रहता है एक सहज विरह भाव ..इसी के दम पर तो वो अपना दर्द बयाँ करता है और प्रार्थना का स्वर ईश्वर को समर्पित करता है .....

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  7. मुझे तो लगता है कि वेदना की कविताओं में प्रेम की कविताओं से अधिक शक्ति है। इसका रंग आपकी कविता में नजर आ रहा है।

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  8. अंतर्मन से की गयी पुकार ......

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  9. jab dil se uthe pukaar wahi kavita hai ..bahut sundar lagi yah

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  10. बहुत सुंदर और अंतर्तम से निकली रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  11. मौन वेदना मेरी ....
    थी तुम्हें पुकारती .......!!

    अनुपमा जी, विरह के बाद ही मिलन का सुख मिलता है..!

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  12. बहुत ही सार्थक प्रस्तुति,मन की गति बदलती रहती है.

    "स्वस्थ जीवन पर-त्वचा की देखभाल"

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  13. मधुर वेदना के स्वर...बहुत सुन्दर रचना, बधाई...

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    1. आभार संध्या जी ....ब्लॉग वार्ता पर मेरी रचना को स्थान देने के लिए ....!!

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  14. सुध-बुध बिसरा बस पढ़ती रही ......
    शुभकामनायें !!

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    1. ह्रदय से आभार विभा जी ब्लॉग ज्वाइन किया ...मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है ...!!

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  15. जितना ही ईश्वर के समीप हम जाते हैं ....उतना ही दुख गहराता है .....ये सोच कर कि प्रभु से कितनी दूर
    ...........हैं हम ....!!


    कभी कभी मौन भी गहराता है

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  16. विरह और मिलन तो परस्पर जुड़े हुए हैं...एक दूसरे से उनका अस्तित्व है ......एक के बिना दूजा असमर्थ...निरर्थक..अस्तित्व हीन ......बहुत सुन्दर प्रस्तुति अनु

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    1. बहुत आभार सरस जी ...!!मेरे ब्लॉग पर आपका ह्रदय से स्वागत है ...!!

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    2. प्रेम के ये भी अन्य रूप हैं ,
      एक दूसरे में घुले मिले
      एक के बिना दूसरा अधूरा .....
      बहुत सुंदर अनुपमा ....
      साभार......



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  17. भाव और स्वर दोनों जहाँ अभिन्न हो उठें वही तन्मय संगीत बन जाता है !

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  18. अनुपमा जी आप सही है ,मन तो चंचल है ही, परतु मन का भाव उस से भी तेजी से बदलते है ,एक क्षण में कुछ तो दूसरी क्षण कुछ और ...कैसे वस किया जाय.....भगवत भावना में तो उन्माद
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  19. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ

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    1. बहुत बहुत आभार अरुण ...!!

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  20. बेहद सुन्दर, भावपूर्ण .. आपको इसे सुरबद्ध करके audio भी ब्लॉग पर डालना चाहिए ...
    सादर
    मधुरेश

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    1. आभार मधुरेश ....ज़रूर कोशिश करूंगी ...!!

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  21. प्रेम और विरह पूरक से दिखते हैं . जितना जाना , कम ही जाना !

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  22. 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..।'सुमित्रा नन्दन पंत जी की यह पंक्तियाँ बरबस याद आ गईं .....

    भावप्रवण रचना

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  23. एक ही सिक्के के दो पहलू . पर दुख किसे चाहिये । तब तोहम प्रर्तना करते है सदा वसंतम् ह्रदयार विंदे । हमारे ह्रदय कमल पर सदा वसंत छाया रहे ।

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  24. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति अनुपमा जी!
    आप लेखका होने के साथ-साथ अच्छी गायिका भी हैं.... इसी कारण इस बात को और भी अच्छे से समझा सकीं.....
    ~सादर!!!

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  25. प्रभू के आत्मीय रंग में रंगी रचना ... अंतस तक प्रभू के होने का एहसास लिए ...
    ..

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  26. बहुत सुन्दर ...अनुपमा जी..
    पधारें " चाँद से करती हूँ बातें "

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  27. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरेया हार्दिक बधाई स्वीकारें

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  28. वाह ..... बेहतरीन

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  29. आप सभी का ह्रदय से आभार ....

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  30. बहुत प्यारी रचना अनुपमा जी....
    madhuresh की बात से सहमत हूँ..

    सादर
    अनु

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नमस्कार ...!!पढ़कर अपने विचार ज़रूर दें .....!!