22 April, 2014

संवेदनाओं का पतझड़ है.…??

अडिग अटल विराट
घने वटवृक्ष तले
स्थिर खड़ी  रही
एक पैर पर
तपस्यारत
पतझड़ में  भी
एक भी शब्द नहीं झरा,
प्रेम से घर का कोना कोना भरा ,
मेरे आहाते में .....
मेरी ज़मीन पर ,
सारे वृक्ष हरे भरे,लहलहाते
चिलचिलाती धूप में भी कोमल छांव ,
यहीं तो है मेरे मन की ठाँव
हरीतिमा छाई ,
निस्सीम कल्पनातीत वैभव,
मन ही तो है-
तुम्हारा वास है यहाँ ,
समृद्ध है ........
कैसे कह दूं मेरे घर में
संवेदनाओं का पतझड़ है.…??

18 comments:

  1. संवेदनशीलता बेहद आवश्यक है , इसे बापस लाना होगा ! मंगलकामनाएं आपको !

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  2. मन ही तो है................

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  3. सदाबहार तरुओं में पतझर नहीं होता , शब्द भी अटके रह जाते हैं कभी-कभी.

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  4. बहुत सुन्दर !

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  5. पतझर और बहार... दोनों ही संवेदनाओं के अलग अलग रूप हैं... पतझर को देख कर ही सदाबहार फूलों से लदे पेड़ की खूबसूरती दुगुनी दिखने लगी जिस कारण कविता का जन्म हुआ....

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  6. उत्कृष्ट भाव..उत्कृष्ट कविता ..

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  7. हृदय से आभार मेरी कृति को यहाँ स्थान दिया ....!!

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  8. वाह .... बहुत खूब

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  9. मर्मस्पर्शी ...अति सुन्दर

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  10. वाह बहुत सुन्दर.....
    संवेदनाओं के नए अंकुर फूटे हैं.......

    सादर
    अनु

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    1. संवेदनशील लोगों से घिरी हूँ .... :-)
      कैसे कह दूं मेरे घर में
      संवेदनाओं का पतझड़ है.…??

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  11. अनुपमा जी, संवेदना के अंकुर इसी तरह फूटते रहें..सुंदर कविता..

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  12. संवेदनाओं के नए अंकुर फूटे हैं.......मर्मस्पर्शी ...अति सुन्दर

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  13. बहुत सुंदर। शुभ संकल्प और शुभ संगत एक दूसरे के पूरक भी हैं और सहवासी भी।

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  14. संवेदनाओं का पतझड़ कहें या अनुभूतियों की गंगा का कल-कल प्रवाह !

    कविता बहुत अच्छी लगी ।

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  15. जीवन में कितना कुछ है..पतझड़ की जगह नहीं है. सुन्दर कृति.

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