12 June, 2011

तलाश ....!!

दंभ अकारण घेरे था .....
श्रद्धा से दूर हुई  मैं ..
ढूँढ रही थी 
तुम में खुद को ...
भटक रही थी 
निर्जन वन में .... 
मिला न मुझको वो सुर मेरा ...!!
ढूँढ -ढूँढ जब 
क्षीण हुआ मन ..
जीर्ण हुआ तन ..

त्याग दिया 
बाल-हठ अपना......
अब मैं ..
खुद में  ढूँढ रही हूँ ...!!
फिर भी  तुमको ढूँढ रही हूँ ...!! 
प्रभु ..मैं तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!!!!

33 comments:

  1. वो यहीं कहीं हैं ...हमारे आस-पास न जाने किस रूप में.

    बेहतरीन लिखा है आपने.


    सादर

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  2. बहुत सुन्दर भाव…..….धन्यवाद

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  3. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (13-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  4. कई बार से,
    जब भी आये याद प्रभु,
    मैं पुऩः ढूढ़ने लगा उन्हे।

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ! उस परम की तलाश जारी है....शुभकामनायें !

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  6. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  7. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..

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  8. अब मैं ..
    खुद में ढूँढ रही हूँ ...!!
    फिर भी तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!
    प्रभु ..मैं तुमको ढूँढ रही हूँ ... ab dhoondhna kya , jab khud me dekh liya to samjho wah mil gaya

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  9. प्रभु तो हमारे मन है

    सुन्दर रचना

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  10. अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

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  11. कितनी सुन्दर रचना है या कहें प्रार्थना है,या मन की भटकन का समापन है कि एक अज्ञात दंभ के हृदय में पवेश पा जाने के कारण (अब वह दंभ किसी कारण से आया हो )उसने एक तो श्रध्दा कम करदी ,साथ ही प्रभू की तलाश में वाधक बना । शायद जंगल में मिलेगा शायद किसी संत के पास मिलेगा यह करने से मिलेगा वह करने से मिलेगा ,इसी चक्कर में जीवन की सांघ्य बेला आ पहुंची और तन और मन दौनों क्षीण हो गये तब फिर अहसास हुआ ""मोको कहां ढूंढे रे बन्दे मै तो तेरे पास मे""। लेकिन मृग मरीचिका ने पहले यह अहसास ही नहीं होने दिया । कितनी अच्छी बात कहदी इस छोटी सी कविता में

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  12. प्रभावित करती पावन अभिव्यक्ति......

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  13. ब्रिज मोहन श्रीवास्तव जी नमस्कार ,
    बड़ा हर्ष हुआ ये देख कर की आपने इतने सुचारू रूप से मेरी कविता के अर्थ का वर्णन किया |आभार आपका |हमारी नकारात्मक सोच ही हमें प्रभु से दूर करती है ....प्रभु को जब स्वयं में ढूंढें तो अपनी उस नकारात्मकता पर विजय पायें और निरंतर सकारात्मक होते चले जाएँ ...प्रभु के समीप पंहुंचने के लिए ....

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  14. har shabd khud hi prabhu ko awaaz de raha hai....ishwar to sab ke hriday mein hai par,hum manushyon ke hridaya mein itni sachaayi kahan ki unhe dekh sake:)

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  15. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति....

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  16. बहुत सुंदर भाव ... हम दंभ की वजह से जीवन की बहुत सी उप्लाब्थियाँ खो देते हैं

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  17. बहुत सुंदर भाव ... हम दंभ की वजह से जीवन की बहुत सी उप्लाब्थियाँ खो देते हैं

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  18. सुन्दर लिखा है..पवित्र भाव ..आपको ढेरों बधाई व शुभकामना...

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  19. अब मैं ..
    खुद में ढूँढ रही हूँ ...!!
    फिर भी तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!
    प्रभु ..मैं तुमको ढूँढ रही हूँ

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  20. कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माही" . श्रद्धा में ही इश्वर विराजमान है .

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  21. प्रार्थना करता मन , कविता , और ईश्वर लगता है कहीं आसपास ही है . ढूंढना बंद कर उसे शायद महसूस करना ज्यादा सार्थक होगा .

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  22. पारस सी प्रभावशाली रचना है अनुपमा जी ! खुद ब खुद मन अपने क्रियाकलापों का आकलन करने लग जाता है जो उसकी प्रभु मिलन की तलाश में बाधक बन जाते हैं ! इतनी पावन प्रस्तुति के लिये बधाई !

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  23. सुन्दर चित्र के साथ बहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!

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  24. bahut sundar is man ke bhav....aapko padh kar accha laga



    anu ab aapke sath jud gayi hun....deri le ye maafi mangti hun...

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  25. भटक रही थी
    निर्जन वन में ....
    मिला न मुझको वो सुर मेरा ...!!

    बहुत सुंदर कविता और भाव

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  26. सुंदर भावाभिव्यक्ति है।


    आभार

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  27. sabhi rachnayen bahut hi sunder hai

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  28. आभार आप सभी का ...ह्रदय से ...

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नमस्कार ...!!पढ़कर अपने विचार ज़रूर दें .....!!