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24 May, 2010

मुझे भगवन दिखे

पति की मलेशिया पोस्टिंग होते ही दिल्ली में सब छोड़ मैं एक अच्छीपत्नी की तरह उनके साथ चली तो आई पर एक हफ्ते में ही वो सारा खुमारजैसे जाने सा लगा. अनायास ही घर की याद सताने लगी .कभी बच्चे ,कभी पापा , कभी बगीचा ,कभी मेरा कुत्ता-मेरा प्यारा टिम्मी , कभी मेरी संगीत क्लास्सेस ----अब उदास होने के लिए बहुत कुछ था मेरे पास .एक अजीब सी चिढ मेरे अन्दर घर कर रही थी .होटल में रहते हुए बड़ी बेगानी सी ज़िन्दगी लग रही थी घर की तलाश भी जारी  थी .अभी हम होटल में ही रुके हुए थे .परन्तु इन दस -बारह दिनों में ही मेरा स्वाभाव कुछ चिड़चिड़ा  सा होने लगा था.नये लोग ....नयी जगह ...जिससे मिलूँ वही फॉर्मल सी बातें...एक के बाद एक जैसे वही प्रश्न ......और मेरे चेहरे  पर एक फीकी सी  मुस्कान ....

ईश्वर पर बहुत विश्वास है मुझे .और ईश्वर का आभास मुझे हो जाता है.मुझे लगता है कोई शक्ति है जो मुझे दिशा दिखाती है.उस दिन भी एक अजीब सी खीज से घिरी मैं होटल की लोब्बी में बैठी ड्राईवर का इंतजार कर रही थी .समय जैसे काटे नहीं कट रहा था .सोचा चलो किसी मॉल में जा कर ही समय गुज़ारा जाए .लोब्बी में बैठी मैं सोच रही थी दिल्ली में तो समय की इतनी कमी थी यहाँ समय ही समय है . मैं यहाँ आई ही क्यों -मैं यहाँ कैसे रहूंगी -और न जाने कितने ही उलटे विचार मेरे मन में आने लगे .ड्राईवर ने भी मुझे जैसे खिजाने की ही सोच रखी थी .उसका इंतजार करते करते गुस्सा और बढ़ने लगा .तभी देखा एक बड़ी सी बस होटल के बाहर आकर रुकी .उसके पीछे का दरवाज़ा खुला और किसी जादू की तरह एक के बाद एक दस -बारह विकलांग व्हील चेयर पर बस में से उतर कर लोब्बी में आ गए इतने अच्छे से अपनी व्हील चेयर खुद ही चला कर होटल के अन्दर आ गए .अपनी भावना भूल कर हतप्रभ सी मैं उन्ही में खो गयी -वो दृश्य ही ऐसा था .सभी विकलांग--इतने साफ़ सुथरे !!स्वच्छ कपडे पहने हुए ---किसी का एक हाथ काम नहीं करता था तो किसी का एक पैर -कोई मूक कोई बधिर -पर सभी में एक चीज़ समान थी--उनके चहरे के भाव --सभी के चहरों पर एक कोमल मुस्कान विद्यमान थी और एक दूसरे को देख कर बहुत खुश होकर हंस हंस करअपनी अपनी तरह से अपनी  बात कह रहे थे .

साक्षात  इश्वर के दर्शन मैंने उन्हीं लोगों में किये .किसी प्रकार की कोइ कमी का एहसास उनके चहरे पर नहीं था .भरमुठ्ठी ख़ुशी बाँट रहे थे एक दूसरे को .मुझे अपनी कमी  का एहसास हुआ .सब कुछ होते हुए भी मैं विचलित क्यों हूई ?मेरा दृष्टिकोण नकारात्मक क्यों हो गया था ?क्यों शारीरिक स्वास्थ्य भरपूर होने के बावजूद हंस कर दो शब्द बात नहीं कर पाते हम ...?सहज क्यों नहीं रह पाते हम ...?

तब लगा उन्हीं के बीच से उड़ती हुई सकारात्मकता मेरे पास आ गयीहै .उन्हीं के खिले खिले चेहरों की मुस्कान मेरे पास आ गयीहै .मैं सोचने लगी --क्या मैं विकलांग नहीं हूँ --मेरी मानसिक विकलांगता शारीरिक विकलांगों ने दूर की .तभी मुझे लगा हर इंसान के अन्दर एक विकलांग है ------

ईश्वर ने तब ये सन्देश दिया------दुखी रहने का सामान मत एकत्रित करो,खुश रहने के बहाने ढूँढो .और तभी मेरी गाड़ी भी आ गयी .मेरी धरोहर -मेरे अन्दर की खोई हुई कृतज्ञता- मुझे वापिस मिल गयीथी . मैंने ड्राईवर से कहा-"मंदिर चलो!!!!!!!!!!!!...I mean take me to some Indian temple please..!!"

6 comments:

  1. aapke is kisse se mujhe bhi bahut achchi seekh mili....bahut koste hain ham bhagwan ko jab bhi kuch bura hota hai...jab achcha hota hai to khud ki badaai sunna chahte hain...

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  2. बहुत-बहुत सुन्दर पोस्ट. होता है ऐसा भी. हम छोटी छोटी सी कमियों पर खीझने लगते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि ईश्वर ने हमें सब दिया है. बस उन्हें देखें, जिनमें कोई कमी रह गई है. अपनी गलती का अहसास खुद ही होगा.

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  3. प्रेरक व सुन्दर प्रसंग।आभार।

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  4. अमित सिंहMay 25, 2010 at 4:34 AM

    बहुत अच्छा लगा आपको पढकर

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  5. बहुत सुंदर और प्रेरणादायक लेख है.
    इस प्रकार के भाव अक्सर मन में आते हैं ,खासकर तब जब हम अपनों से दूर दुसरे देश चले जाते हैं ,उनकी कमी हमको खटकने लगती है ,तब इस प्रकार की चिडचिडाहट स्वाभाविक है ,पर ऐसे समय पर ही अपनेआप को सकारात्मक दिशा मिल जाये इसी में जीत है .....
    आपके इन भावों को पढ़कर अयोध्यासिंह उपाध्याय की ये कविता याद आई....

    ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
    थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
    सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
    आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

    देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
    मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
    या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
    चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

    बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
    वह समुन्दर ओर आई अनमनी
    एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
    वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

    लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
    जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
    किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
    बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

    आप उसी मोती के समान हैं ....

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