रात अँधेरी सूनसान -
कैसी धुन्ध में लिपटे हैं प्राण-
क्षीण सी होती जाती है दृष्टि
व्यथा मिटा सके
बरसे जो नयन - वृष्टि -
कहाँ छुप गया है
सभ्यता -संस्कृती का
वो अनमोल खज़ाना -
जिसका डंका पीटता है -
आज भी सारा ज़माना-
हम क्यों बदलने पर आमादा हो गए ..?
आस्था के कच्चे धागे कहाँ खा गए ..?
पत्थर की पूजा करके -
कैसे मिलेंगे भगवान .?
श्रद्धा भक्ति और सेवा का -
कौन करेगा अब गुणगान .?
काश बीत जाये ये शीतलहर ......!!
नष्ट हो हमारी सभ्यता पर छाया -
ये धुन्ध का कहर .....!!
शीत से थरथराता कंपकपाता है मन -
नित्य ही करता है जप -
जीवन विलास है या तप..?
बरसों से जाग-जाग कर -
की थी आराधना -
साध साध कर की थी साधना -
और किया था अंतर्मन का -
गहन अध्ययन ...!!
जैसे सागर मंथन से
विषपान कर चुका था मन ...!!
गहराते तम से -
सहसा हट गए नयन -
कैसे व्योम पर पहुंची मेरी दृष्टि -
शुभप्रभात की अमृत बेला -
देख रही थी सृष्टि .............!!!!
छंट चुकी थी धुन्ध ...!!
साफ़ दिख रही थी उषा की प्रथम किरण...
अकस्मात् ही गुनगुना उठा मेरा मन -
न बदलेंगे हम -
न बदलने देंगे ज़माने को
आओ शपथ लें ये नया वर्ष मनाने को ........!!!!!
कैसी धुन्ध में लिपटे हैं प्राण-
क्षीण सी होती जाती है दृष्टि
व्यथा मिटा सके
बरसे जो नयन - वृष्टि -
कहाँ छुप गया है
सभ्यता -संस्कृती का
वो अनमोल खज़ाना -
जिसका डंका पीटता है -
आज भी सारा ज़माना-
हम क्यों बदलने पर आमादा हो गए ..?
आस्था के कच्चे धागे कहाँ खा गए ..?
पत्थर की पूजा करके -
कैसे मिलेंगे भगवान .?
श्रद्धा भक्ति और सेवा का -
कौन करेगा अब गुणगान .?
काश बीत जाये ये शीतलहर ......!!
नष्ट हो हमारी सभ्यता पर छाया -
ये धुन्ध का कहर .....!!
शीत से थरथराता कंपकपाता है मन -
नित्य ही करता है जप -
जीवन विलास है या तप..?
बरसों से जाग-जाग कर -
की थी आराधना -
साध साध कर की थी साधना -
और किया था अंतर्मन का -
गहन अध्ययन ...!!
जैसे सागर मंथन से
विषपान कर चुका था मन ...!!
गहराते तम से -
सहसा हट गए नयन -
कैसे व्योम पर पहुंची मेरी दृष्टि -
शुभप्रभात की अमृत बेला -
देख रही थी सृष्टि .............!!!!
छंट चुकी थी धुन्ध ...!!
साफ़ दिख रही थी उषा की प्रथम किरण...
अकस्मात् ही गुनगुना उठा मेरा मन -
न बदलेंगे हम -
न बदलने देंगे ज़माने को
आओ शपथ लें ये नया वर्ष मनाने को ........!!!!!
न बदलेंगे हम -
ReplyDeleteन बदलने देंगे ज़माने को
आओ शपथ ले नववर्ष मनाने को ........!!!!!
धुंध पर बेहतर प्रस्तुति...
नववर्ष शुभ हो !
बहुत शाश्वत प्रश्न उठायें हैं आपने अपनी इस रचना में...शब्द और भाव का नूठा मेल है इस रचना में...मेरी बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
बरसों से जाग-जाग कर -
ReplyDeleteकी थी आराधना -
साध साध कर की थी साधना -
और किया था अंतर्मन का -
गहन अध्ययन ...!!
जैसे सागर मंथन से
विषपान कर चुका था मन ...!!
ऐसा मन शीत से कांपता है ? मन नहीं मानता.
पत्थर में भगवान नहीं आस्था पूजती है .
नव वर्ष में निरंतर लिखना जारी रहेगा ऐसी ही नव वर्ष की शुभकामना है
A very positive thinking.Congrats and
ReplyDeletekeep it up.
सभ्यता के स्थायी स्तम्भ एक एक कर खोते जा रहे हैं। सुन्दर कविता।
ReplyDeleteधुंध से निकलने का पावन संकल्प कविता की आत्मा है!
ReplyDeleteसुन्दर!
bhavon ki sundar abhivyakti .nav varsh ki hardik shubhkamnaye .mere blog 'vikhyat' par aapka hardik swagat hai .
ReplyDeleteबहुत अच्छा संकल्प लिया है..इस आशा के साथ कि बदलेगा ज़माना ..नव वर्ष की शुभकामनाएँ
ReplyDelete'सी.एम.ऑडियो क्विज़'
हर रविवार प्रातः 10 बजे
त्रुटि सुधार--कृपया टिप्पणी में '' बदलेगा ज़माना को ...'नहीं बदलेगा ये ज़माना 'पढ़ें.
ReplyDeleteधुंध गहरा रहा है , सभ्यता पर संकट की तरह , आशाये क्षीण होने लगी है फिर भी विश्वास है की सब ठीक हो जायेगा . सुन्दर अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteकैसे व्योम पर पहुंची मेरी दृष्टि -
ReplyDeleteशुभप्रभात की अमृत बेला -
देख रही थी सृष्टि .............!!!!
छंट चुकी थी धुन्ध ...!!
साफ़ दिख रही थी उषा की प्रथम किरण...
अकस्मात् ही गुनगुना उठा मेरा मन -
न बदलेंगे हम -
न बदलने देंगे ज़माने को
आओ शपथ लें ये नया वर्ष मनाने को ........!!!!!
खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..
आदत.......मुस्कुराने पर
ReplyDeleteकल्पना नहीं कर्म ................संजय भास्कर
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
बहुत कुछ कहती है आपकी ये कविता..बहुत कुछ..
ReplyDeleteमेरी ये रचना आप सभी ने पढ़ी और अपने विचार दिए -मैं आप सभी की आभारी हूँ -
ReplyDeleteअतुल जी आपने ठीक लिखा है -पत्थर में भगवान् नहीं आस्था पुजती है वाही चीज़ मैं कहना चाहती हूँ--
हम क्यों बदलने पर आमादा हो गए ..?
आस्था के कच्चे धागे कहाँ खा गए ..?
पत्थर की पूजा करके -
कैसे मिलेंगे भगवान .?
श्रद्धा भक्ति और सेवा का -
कौन करेगा अब गुणगान ?
जब आस्था खो गयी तो हमारी पूजा सिर्फ पत्थर की पूजा है -मात्र दिखावा ...!!इसीलिए आस्था ,श्रद्धा और भक्ति का हमारे जीवन में बहुत मूल्य है --
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शीत से थरथराता कंपकपाता है मन -
नित्य ही करता है जप -
जीवन विलास है या तप..?
आस्थ खो जाने पर शीत से मन कपकपाता है लेकिन आस्था मिल जाने पर-जो की तप से ही मिलती है -मन की धुंद हट जाती है .
आप सभी की मैं पुनः आभारी हूँ आपने मेरी रचना पढ़ी और अपने विचार दिए .
बहुत बहुत धन्यवाद
.
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ReplyDeleteसच्चे मन की सच्ची कामना - प्रशंसनीय रचना के लिए बधाई तथा सपरिवार नव वर्ष की मंगल कामना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ! नव वर्ष की शुभकामनाएं !
ReplyDeleteशब्दों का अनूठा संकलन किया है |बहुत सुन्दर भाव बधाई |
ReplyDeleteआपको नव वर्ष शुभ और मंगलमय हो |
आशा
वक्त तो बदल ही जाता है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
नयी चेतना को संचरित करती रचना ।
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।
हम भी शपथ लेते हैं....कि....कि....कि....इस शपथ के प्रण में हम आपके साथ हैं.....!!
ReplyDeleteसम्मोहित करती हैं यह पंक्तियाँ .....
ReplyDeleteहम क्यों बदलने पर आमादा हो गए ..?
आस्था के कच्चे धागे कहाँ खा गए ..?
पत्थर की पूजा करके -
कैसे मिलेंगे भगवान .?
श्रद्धा भक्ति और सेवा का -
कौन करेगा अब गुणगान .?
श्रेष्ठ कविता के लिए बधाई
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 29 -12 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज... अगले मोड तक साथ हमारा अभी बाकी है
बहुत खूब अनुपमा जी .....
ReplyDeleteबधाई, इतनी बढ़िया रचना के लिए.
वाह ...बहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
ReplyDeleteन बदलेंगे हम -
ReplyDeleteन बदलने देंगे ज़माने को
आओ शपथ लें ये नया वर्ष मनाने को ........!!!!!
बहुत ही बढ़िया।
सादर
बहुत सुंदर भावों से सजी सार्थक अभिव्यक्ति ....
ReplyDeletejabardast prashn hain...karmyog hi jawaab hai inka...bahut sundar rachna
ReplyDeleteजैसे सागर मंथन से
ReplyDeleteविषपान कर चुका था मन ...!!
गहराते तम से -
सहसा हट गए नयन -
aur sahsa sab kuchh nazron ke saamne clear hota chala gaya..