अडिग अटल विराट
घने वटवृक्ष तले
स्थिर खड़ी रही
एक पैर पर
तपस्यारत
पतझड़ में भी
एक भी शब्द नहीं झरा,
प्रेम से घर का कोना कोना भरा ,
मेरे आहाते में .....
मेरी ज़मीन पर ,
सारे वृक्ष हरे भरे,लहलहाते
चिलचिलाती धूप में भी कोमल छांव ,
यहीं तो है मेरे मन की ठाँव
हरीतिमा छाई ,
निस्सीम कल्पनातीत वैभव,
मन ही तो है-
तुम्हारा वास है यहाँ ,
समृद्ध है ........
कैसे कह दूं मेरे घर में
संवेदनाओं का पतझड़ है.…??
घने वटवृक्ष तले
स्थिर खड़ी रही
एक पैर पर
तपस्यारत
पतझड़ में भी
एक भी शब्द नहीं झरा,
प्रेम से घर का कोना कोना भरा ,
मेरे आहाते में .....
मेरी ज़मीन पर ,
सारे वृक्ष हरे भरे,लहलहाते
चिलचिलाती धूप में भी कोमल छांव ,
यहीं तो है मेरे मन की ठाँव
हरीतिमा छाई ,
निस्सीम कल्पनातीत वैभव,
मन ही तो है-
तुम्हारा वास है यहाँ ,
समृद्ध है ........
कैसे कह दूं मेरे घर में
संवेदनाओं का पतझड़ है.…??
संवेदनशीलता बेहद आवश्यक है , इसे बापस लाना होगा ! मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteमन ही तो है................
ReplyDeleteवाह बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसदाबहार तरुओं में पतझर नहीं होता , शब्द भी अटके रह जाते हैं कभी-कभी.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.....
ReplyDeleteपतझर और बहार... दोनों ही संवेदनाओं के अलग अलग रूप हैं... पतझर को देख कर ही सदाबहार फूलों से लदे पेड़ की खूबसूरती दुगुनी दिखने लगी जिस कारण कविता का जन्म हुआ....
ReplyDeleteउत्कृष्ट भाव..उत्कृष्ट कविता ..
ReplyDeleteहृदय से आभार मेरी कृति को यहाँ स्थान दिया ....!!
ReplyDeleteवाह .... बहुत खूब
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी ...अति सुन्दर
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteसंवेदनाओं के नए अंकुर फूटे हैं.......
सादर
अनु
संवेदनशील लोगों से घिरी हूँ .... :-)
Deleteकैसे कह दूं मेरे घर में
संवेदनाओं का पतझड़ है.…??
अनुपमा जी, संवेदना के अंकुर इसी तरह फूटते रहें..सुंदर कविता..
ReplyDeleteसंवेदनाओं के नए अंकुर फूटे हैं.......मर्मस्पर्शी ...अति सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर। शुभ संकल्प और शुभ संगत एक दूसरे के पूरक भी हैं और सहवासी भी।
ReplyDeleteसंवेदनाओं का पतझड़ कहें या अनुभूतियों की गंगा का कल-कल प्रवाह !
ReplyDeleteकविता बहुत अच्छी लगी ।
जीवन में कितना कुछ है..पतझड़ की जगह नहीं है. सुन्दर कृति.
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