पलट गए पन्ने -
और ....
आगे बढ चला जीवन -
जैसे रेत पर बने-
पैरों के निशान मेरे -
पलट कर देखती हूँ ....
सोचती हूँ -
क्या दिया क्या लिया ....-
क्या कुछ छाप छोड़ी ?
क्या पलभर भी
कोई मुझे -
याद रख पायेगा ?
या सदियों से -
आ रही परंपरा
कायम रह जायेगी -
विस्मृत सी पड़ जायेगी
मेरी स्मृति -
धूमिल सी पड़ जाएगी
मेरी छब........!!!
आगे बढ चला जीवन -
जैसे रेत पर बने-
पैरों के निशान मेरे -
पलट कर देखती हूँ ....
सोचती हूँ -
क्या दिया क्या लिया ....-
क्या कुछ छाप छोड़ी ?
क्या पलभर भी
कोई मुझे -
याद रख पायेगा ?
या सदियों से -
आ रही परंपरा
कायम रह जायेगी -
विस्मृत सी पड़ जायेगी
मेरी स्मृति -
धूमिल सी पड़ जाएगी
मेरी छब........!!!
Didi...nice thoughts...but who can wash away the memories.....aamit chaap chodti hain aap!!
ReplyDeleteखूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDeleteखूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
bahut achchi lagi......
ReplyDeleteआपकी हर कविता कि तरह बेहतरीन।
ReplyDeleteसादर
अपनी पहचान सदैव ही होती है, हम जहाँ भी और जिस रूप में होते हैं विशिष्ट होते हैं. इस सृष्टि की हमारे बिना गुजर ही कहाँ होती है?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता !
सुगढ़ चिंतन करती रचना....
ReplyDeleteसादर...
socho ko naye aayam deti abhivyakti.
ReplyDeleteकुछ ऐसा करना चाहती हूँ
ReplyDeleteसबके दिल में रहना चाहती हूँ
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति