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23 February, 2015

मान्यताएँ ....(क्षणिकाएं)

मेरी मान्यताओं के धागे
बंधे हैं उससे  ,
समय के साथ ,
समय की क्षणभंगुरता जानते हुए भी,
 वृक्ष नहीं हिलता
अपने स्थान से  ,
बल्कि जड़ें निरंतर
माटी में और सशक्त
और गहरी पैठती चली  जाती हैं !!
आस्था गहराती है ,
छाया और घनी होती जाती है !!

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सदियों से ...
चूड़ी बिछिया पायल पहना ,
बेड़ियों मे जकड़ा ,
अपनों का भार वहन करता
ये कैसा संकोच है ,
निडर ...स्थिर,एकाग्र चित्त ...!!
अम्मा के सर के पल्ले की तरह ........
सरकता नहीं अपनी जगह से कभी ....!!

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बहती धारा से ,
सजल सुबोधित
उम्मीद भरे शब्द
शक्तिशाली होते हैं
प्रभावशाली प्रवाहशाली होते हैं
स्वत्व की चेतना जगा ,
जुडते हैं नदी के प्रवाह से इस तरह
के बहती जाती है नदी
कल कल निनाद के साथ
फिर रुकना  नहीं जानती ........!!
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8 comments:

  1. सभी क्षणिकाएँ मजबूती से चेतनशील होने की ओर इंगित करती है ....

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  2. कुछ ही पंक्तियों में जीवन दर्शन सिमिट आया हो जैसे ...
    सुन्दर ...

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. सुन्दर सार्थक रचना...सभी में जीवन दर्शन क बोध होता है

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  6. बहुत सुन्दर रचना ...

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  7. सभी क्षणिकाएँ मजबूती से चेतनशील होने की ओर इंगित करती है
    ebook publisher india

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  8. आस्था कभी डिगने नहीं देती,संकोच भटकने नहीं देता और नदी तो वही है जो बहती है...अति भावपूर्ण रचना के लिए बधाई अनुपमा जी...

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