याद आती है आज से कई साल पहले की वो दोपहर |मैं जबलपुर से सिहोरा जाती थी वहाँ के महाविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाने !!शटल से सुबह सिहोरा जाना और दोपहर ढाई बजे की (मेल)ट्रेन से लौटना !सिहोरा जा कर पढ़ाना बहुत आसान तो नहीं था ...!!बहुत छोटा शहर सिहोरा ,जबलपुर से 40 किलोमीटर !शटल से जाते थे और मेल ट्रेन से लौटते !!
घर लौटते हुए किसी न किसी बात पर कुछ चिड़चिड़ाहट सी बनी रहती थी |लेकिन ट्रेन में लौटते हुए दिखते थे ये पलाश के जंगल ....सुर्ख लाल रंग क्या होता है तभी जाना !नयनाभिराम सौन्दर्य आज भी बसा हुआ है आँखों में |इतने सुंदर दिखते हैं और कुछ ईश्वरीय शक्ति भी निहित है इनमें .....मन का सारा क्लेश हर लेते हैं !!पलाश के दिन आते ही वही रंग याद आता है और लेखन उसी रंग में रंग जाता है ....!!कितना सुखद होता है कर्तव्यों को निभाते हुए भी अपने चंचल स्वत्व को बचाए रखना !!शायद पलाश की छवि अमिट रह गई मेरे मानस पटल पर ......!!
अब सोचती हूँ ...,प्रेम में अधिकार न हो तो प्रेम निरर्थक है .....!!ओ पलाश सच बताओ अगर तुम पलाश नहीं होते तो कैसे तुम्हारे प्रेम में रगती ...?... तुम्हारे प्रेम में बंधी ,कितने अधिकार से तुम्हारे सर पर अर्थशास्त्र का सारा बोझ रखकर ...रंगी रही पलाश के रंग में ....लिख पाई कुछ पलाश से रंगी रचनाएँ ...!!गा पाई कुछ पलाश में रंगे गीत ....!!बह पाई कुछ पलाश से भावों में बरसात के इन बादलों की तरह ......जैसे मेरी बात ये प्रकृति समझ रही है और रात भर से बरस रही है अपने प्रेम में फिर सबको भिगोने ....
पलाश तो रंग ही प्रेम का है
बहती हवा के संग उमंग
छा रही है मन पर ऐसी
घनीभूत पीड़ा हर जाती है
ये तरंग कैसी
रंग की बहार है
खिल गए असंख्य सुमन ,
आज है गगन मगन ........
ऐसा नहीं कि प्रेम मेरे लिए एक दिन का विषय है .....पर किसी भी बहाने से प्रेम की बात हो ,ज़रूर करनी चाहिए .......
घर लौटते हुए किसी न किसी बात पर कुछ चिड़चिड़ाहट सी बनी रहती थी |लेकिन ट्रेन में लौटते हुए दिखते थे ये पलाश के जंगल ....सुर्ख लाल रंग क्या होता है तभी जाना !नयनाभिराम सौन्दर्य आज भी बसा हुआ है आँखों में |इतने सुंदर दिखते हैं और कुछ ईश्वरीय शक्ति भी निहित है इनमें .....मन का सारा क्लेश हर लेते हैं !!पलाश के दिन आते ही वही रंग याद आता है और लेखन उसी रंग में रंग जाता है ....!!कितना सुखद होता है कर्तव्यों को निभाते हुए भी अपने चंचल स्वत्व को बचाए रखना !!शायद पलाश की छवि अमिट रह गई मेरे मानस पटल पर ......!!
अब सोचती हूँ ...,प्रेम में अधिकार न हो तो प्रेम निरर्थक है .....!!ओ पलाश सच बताओ अगर तुम पलाश नहीं होते तो कैसे तुम्हारे प्रेम में रगती ...?... तुम्हारे प्रेम में बंधी ,कितने अधिकार से तुम्हारे सर पर अर्थशास्त्र का सारा बोझ रखकर ...रंगी रही पलाश के रंग में ....लिख पाई कुछ पलाश से रंगी रचनाएँ ...!!गा पाई कुछ पलाश में रंगे गीत ....!!बह पाई कुछ पलाश से भावों में बरसात के इन बादलों की तरह ......जैसे मेरी बात ये प्रकृति समझ रही है और रात भर से बरस रही है अपने प्रेम में फिर सबको भिगोने ....
पलाश तो रंग ही प्रेम का है
बहती हवा के संग उमंग
छा रही है मन पर ऐसी
घनीभूत पीड़ा हर जाती है
ये तरंग कैसी
रंग की बहार है
खिल गए असंख्य सुमन ,
आज है गगन मगन ........
ऐसा नहीं कि प्रेम मेरे लिए एक दिन का विषय है .....पर किसी भी बहाने से प्रेम की बात हो ,ज़रूर करनी चाहिए .......
जीवन द्वारा प्रदत्त कोई भी अवसर निरर्थक नहीं मानना चाहिये। छोटी छोटी बातों में बड़ी योजनायें छिपी रहती हैं, ईश्वर की।
ReplyDeleteप्रकृति के पास कितना कुछ है हमें देने के लिए. मन आनंदित करने के लिए.
ReplyDeleteखूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसच्ची बात है ..... प्यार तो सदा के लिए होते हैं
हार्दिक शुभकामनायें
मुझे भी बहुत पसंद हैं पलाश के फूल...कैसे झट से अपना रंग पानी को दे देते हैं.....
ReplyDeleteमौसम में एक बार ज़रूर इसकी डाली तोड़ के घर ले आती हूँ :-)
बहुत सुन्दर लिखा है...
सस्नेह
अनु
खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteकोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् कल रविवार (16-02-2014) को "वही वो हैं वही हम हैं...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1525" पर भी रहेगी...!!!
ReplyDelete- धन्यवाद
हृदय से आभार राहुल जी मेरी कृति को आपने चर्चा मंच पर लिया ...!!
Deleteपलाश के बहाने न जाने कितनी स्मृतियाँ सजीव हो उठीं ......उमंग की तरंग में मन
ReplyDeleteहिलोरें लेने लगा .....बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ....
प्रस्तुति प्रशमसनीय है। मेरे नरे नए पोस्ट सपनों की भी उम्र होती है, पर आपका इंजार रहेगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteयात्रा और दृश्य, प्रेम और पलाश... अच्छी समनताएँ... पता नहीं क्यों बस प्रेम से समबन्धित दो बातें मेरी परिभाषा में नहीं समाती..
ReplyDelete"प्रेम में अधिकार न हो तो प्रेम निरर्थक है"
"तुम्हारे प्रेम में बंधी"
प्रेम में न बन्धन होना चाहिए, न अधिकार... प्रेम तो समर्पण है... मैं और तुम को खोकर एकाकार हो जाने का नाम!! मानो सूरज की लाली पलाश के रंग में एकाकार हो गई हो!!
अपनी बातों के लिए क्षमा चाह्ते हुए बस इतना ही कहना चाहूँगा कि आपकी कविता हमेशा एक ताज़गी लिए आती है, मौलिकता इन कविताओं की विशेषता है!!
आप निसंकोच कहें सलिल जी बुरा मानने की बात ही नहीं है |बुरा मानने से तो मेरी प्रगति ही रुक जाएगी |वैचारिक मतभेद में बुरा क्यों मानना ?हाँ ये ज़रूर है कुछ शब्दों में मैं अपना परिपेक्ष नहीं समझा पाऊँगी |फिर भी कोशिश करती हूँ |ये पुरुष और स्त्री की मानसिकता का अंतर है |पुरुष बंधना नहीं चाहता स्त्री बांधना चाहती है और उसी में संरक्षण पाती है !!धरा ने भी गुरुत्वाकर्षण से बांधा तो है न ...?पंछी कितना भी उड़ ले लौट के अपने नीड़ वापस आता तो है न ...?आत्मा भी तो शरीर से बंधी है !!निर्बाध प्रेम में भी बंधन है ....और प्रेम की निर्भयता में अधिकार है ....!!
Deleteपता नहीं अपना परिपेक्षा आपको समझा पाई या नहीं |कृपया निश्चिंत हो कर अपने विचार देते रहें मुझे कतई बुरा नहीं लगता |कविता पसंद करने के लिए हार्दिक आभार !!
lajbab prastuti hetu aabhar tripathi ji .
ReplyDeletewaah ...,प्रेम में अधिकार न हो तो प्रेम निरर्थक है .....!!ओ पलाश सच बताओ अगर तुम पलाश नहीं होते तो कैसे तुम्हारे प्रेम में रगती ...?.....sundar baat kahi aapne prem or adhikar sayad ek dusre ke purak hai .. :)
ReplyDeleteखिल गए असंख्य सुमन....
ReplyDeleteखूबसूरत पलाश के फूल
ReplyDelete