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14 August, 2010

दिल्ली का रोया दिल ....!!!!


पांच महीने के लम्बे अंतराल के बाद विदेश से अपने देश लौटने का आभास ही कुछ और था .अपना देश-- --लगता था पवन के झोंके के साथ किसी पुष्प की भीनी सी खुशबू मिली हुई है ...!! अपने लोग --परिचित से जाने पहचाने से चहरे .अपनी भाषा --लगता था बस बेधड़क हिंदी ही बोलती रहूँ .मन का झूला ऊँची ऊँची पींगें भर रहा था ...सभी चीज़ें कितनी सुहावनी लग रही थीं .मन में उमंग लिए गाते -गुनगुनाते मैं पहुँच गयी दिल्ली .परन्तु यह क्या ...?दिल्ली के हालात देख कर घोर आश्चर्य हुआ --पूरी दिल्ली की सड़कें खुदी पड़ी हैं ....ट्राफिक का इतना बुरा हाल ...?जगह जगह जाम ..पीं-पीं ....करता हुआ गाड़ियों का अनवरत शोर ....कैसी आपा-धापी मची हुई है ---हर शक्स आगे से आगे भागना चाहता है ..!!.........इसी पीं -पीं के शोर में दब गयीं हैं हर मनुष्य की भावनाएं ..........
पहुंची जब परदेस से अपने देस -
लागी मनवा को ये कैसी ठेस ....
मन मेरा --जीवन मेरा --
पीड़ा भी मेरी ही --!!
धर ली फिर एक गठरी -
सोच की सर पर --
बोझिल सा हो गया ह्रदय --
दिल्ली की हालात को देख देख मन रोया -
खुदा पडा सारा शहर - जाने फिर क्या क्या खोया --

कहाँ गए वो लोग ....?कहाँ गयी वो सभ्यता जिसका डंका पुरे विश्व में बजता है .क्या अपनी मातृभूमि की इस दशा के लिए हम स्वयं ज़िम्मेदार नहीं हैं ...??बचपन में कहीं पढ़ी हुई एक कविता की चन्द पंक्तियाँ याद आ गयीं --

''ये गंगा और यमुना नर्मदा का दूध जैसा जल-
हिमालय की अडिग दीवार और ये मौन विन्ध्याचल-
बताती है आरावली की हमें यह शांत सी चोटी-
यहीं राणा ने खायी देश हित में घांस की रोटी -
अगर इन रोटियों का ऋण चुकाना भी बगावत है -
तो मैं एलान करता हूँ की मैं भी एक बागी हूँ ................!!''

आज के परिपेक्ष में यही बात खरी उतरती है .कुछ बागी लोगों की ही अब देश को ज़रुरत है ..मौन रह कर सहन करना उचित नहीं है ....जन जन में जागरूकता लानी चाहिए ....!!!
जय हिंद .

4 comments:

  1. excellent work. keep up the spirit.
    lots of love,
    Dr. Alka Mishra

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  2. तो मैं एलान करता हूँ की मैं भी एक बागी हूँ - यह एक भारतीय का प्रण है या सिर्फ दिल्ली निवासी का दर्द ?

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  3. मौन रह कर सहन करना उचित नहीं है ....जन जन में जागरूकता लानी चाहिए ....!!!

    काश कि हर कोई ऐसा सोचता...सुन्दर सोच.
    ________________
    शब्द-सृजन की ओर पर ''तुम्हारी ख़ामोशी"

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  4. pata nahi ye jagrukta kab aayegi.....:(

    waise ek aam bhartiya ki ye soch rahti hai jab tak koi pareshane khud ko pareshan na kare.......tab tak ham pattli gali se nikal lete hain........

    kass aisa kuchh ho paye......:)

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