धनघड़ी आई .....
ब्रह्ममुहुर्त लाई ....!!
अब शुभ संकेत सी ...
बिखरने लगी लालिमा ...
ऊषा की आहट से ही ...
घुल गई रात्रि की कालिमा ...!!
नतमस्तक हूँ ...प्रभु द्वार .....!!
वृहद हस्त हो ...
तुम्हारा प्रभु हर बार ....!!
इस जीवन में सौभाग्य ही है मेरा ....
ज्ञान के इस अखण्ड मान सरोवर में ....
प्रभु अर्हणा प्राप्त ...
मैं वो रक्त कमल हूँ ...
प्रत्येक प्रात निज आभ से ...
चूमती हो मस्तक मेरा ....
और सुप्तप्राय सा ... मैं ...
खोल तंद्रिल चक्षु..
अनुरक्त हो .....
सुध-बुध खो .....
तत्क्षण तत्पर जागृत हो...
स्फूर्त हो उठता हूँ .....
अपनी पंखुड़ियों सी कृति लिये ..
किंजल्क लिए ..
खिलने के लिये ...
सँवरने के लिये ...
बिखरने के लिये .....................................................................................................!
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अर्हणा --सम्मान
अनुरक्त--वशीभूत हो ...
किंजल्क -कमल का पराग
आज सुबह से ही इस कविता को पोस्ट करने की कोशिश कर रही थी .....पता नहीं क्यों पोस्ट ही नहीं हो पा रही थी ।अब अलग पोस्ट बना कर ड़ाल रही हूँ ...आशा है सफलता मिलेगी ...!!