दूर दीखता निर्मल पानी
चमक देख मन में हैरानी
चमकीला सा पानी
जाकर झट पी जाऊं
अटक -भटक थी मेरे मनमे
प्यास बुझाऊँ --
पृथ्वी की गति -वेग न पाऊँ---
भाग भाग फिर मैं थक जाऊं-
मैं रुक जाऊं -
चंचल मन में मोह था मेरे -
फिर उठ जाऊं -
पृथ्वी की गति -वेग न पाऊँ -
भाग- भाग फिर मैं थक जाऊं-
मैं रुक जाऊं .....!!!!
जीवन का यह चक्र -
समझ में पल ना आता -
काम -क्रोध-मद -लोभ से --
मेरा मन भरमाता --
मित्थ्या पीछे चलते- चलते -
जब मैं थक कर हार गयी -
तब समझी मैं--- मार्ग मेरा क्या -
निश्चित अब पहचान गयी -
जाग गयी चेतना --
अब मैं देख रही प्रभु लीला --
प्रभु लीला क्या -जीवन लीला ....
जीवन है संघर्ष तभी तो --
जीवन का ये महाभारत --
युध्ह के रथ पर --
मैं अर्जुन ...तुम सारथी मेरे ..
मार्ग दिखाना -
मृगमरीचिका नहीं ---
मुझे है जल तक जाना ...!!!!!!
what a lovely poem ! If it was indeed written at midnight , it shows . Such thoughts can only happen when world is asleep
ReplyDeletemann ke udgaar bahut sundar shabdon mein utaare hain.....
ReplyDeleteगहन भाव .. रुकते और भ्रमित होते हुए भी इस राठी को खोज निकालना कि जल ( सत्य ) तक जाना है ..बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्दों से अपने भाव को बाँधा है ..
ReplyDeleteयुध्ह के रथ पर --
ReplyDeleteमैं अर्जुन ...तुम सारथी मेरे ..
मार्ग दिखाना -
मृगमरीचिका नहीं ---
मुझे है जल तक जाना ...!!!!bahut hi achchi rachanaa,bahut sunder shabdon ka chayan.badhaai aapko.
युध्ह के रथ पर --
ReplyDeleteमैं अर्जुन ...तुम सारथी मेरे ..
मार्ग दिखाना -
मृगमरीचिका नहीं ---
मुझे है जल तक जाना ...!!!!!!
बहुत सुन्दर भाव हैं अनुपमा जी ! जीवन के महासंग्राम में प्रभु यदि सारथी बन हमारे मन की दुविधाओं का निदान कर दें तो निश्चित ही हमें मरीचिकाओं के पीछे भटकने की आवश्यकता नहीं होगी ! हमें हमारी इच्छित जलराशि तक पहुँचने का मार्ग सुगमता से मिल जायेगा ! बहुत भावपूर्ण एवं सुन्दर रचना ! बधाई एवं शुभकामनायें !
जाग गयी चेतना --
ReplyDeleteअब मैं देख रही प्रभु लीला --
प्रभु लीला क्या -जीवन लीला ....
जीवन है संघर्ष तभी तो --
जीवन का ये महाभारत --
इन पंक्तियों की बात ही अलग है.
सादर
संछेप में बस इतना ही कहूँगा ..........शब्द कम हैं मेरे पास इस कविता की तारीफ के लिए
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 09 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी!!
ReplyDeleteयुध्ह के रथ पर --
ReplyDeleteमैं अर्जुन ...तुम सारथी मेरे ..
मार्ग दिखाना -
मृगमरीचिका नहीं ---
मुझे है जल तक जाना ...!!!
भीतर की सुप्त चेतना यदि सक्रिय हो जाए तो इन्सान किसी भी महाभारत को जीत सकता है | सार्थक रचना अनुपमा जी |
जीवन की वास्तविकता समझ में आने के बाद ही वास्तविक जल व मृगमरीचिका का अंतर समझ आता है। ऐसे में भ्रमित मन को ईश्वर ही सही मार्ग दिखा सकते हैं।
ReplyDeleteमैं अर्जुन ...तुम सारथी मेरे ..
मार्ग दिखाना -
मृगमरीचिका नहीं ---
मुझे है जल तक जाना ..
यदि स्वयं को यह बोध हो जाए तो लक्ष्य तक पहुँचना और आसान होगा !!!