दंभ अकारण घेरे था .....
श्रद्धा से दूर हुई मैं ..
ढूँढ रही थी
तुम में खुद को ...
भटक रही थी
निर्जन वन में ....
मिला न मुझको वो सुर मेरा ...!!
ढूँढ -ढूँढ जब
क्षीण हुआ मन ..
जीर्ण हुआ तन ..
त्याग दिया
बाल-हठ अपना......
अब मैं ..
खुद में ढूँढ रही हूँ ...!!
फिर भी तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!
प्रभु ..मैं तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!!!!
वो यहीं कहीं हैं ...हमारे आस-पास न जाने किस रूप में.
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा है आपने.
सादर
बहुत सुन्दर भाव…..….धन्यवाद
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (13-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
कई बार से,
ReplyDeleteजब भी आये याद प्रभु,
मैं पुऩः ढूढ़ने लगा उन्हे।
bahut sundar bhavpurn rachna.
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ! उस परम की तलाश जारी है....शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत उम्दा अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteबेहतरीन भाव।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteअब मैं ..
ReplyDeleteखुद में ढूँढ रही हूँ ...!!
फिर भी तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!
प्रभु ..मैं तुमको ढूँढ रही हूँ ... ab dhoondhna kya , jab khud me dekh liya to samjho wah mil gaya
प्रभु तो हमारे मन है
ReplyDeleteसुन्दर रचना
Deep ! Very deep di !
ReplyDeleteअनंत है भक्त की तलाश,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
ReplyDeleteकितनी सुन्दर रचना है या कहें प्रार्थना है,या मन की भटकन का समापन है कि एक अज्ञात दंभ के हृदय में पवेश पा जाने के कारण (अब वह दंभ किसी कारण से आया हो )उसने एक तो श्रध्दा कम करदी ,साथ ही प्रभू की तलाश में वाधक बना । शायद जंगल में मिलेगा शायद किसी संत के पास मिलेगा यह करने से मिलेगा वह करने से मिलेगा ,इसी चक्कर में जीवन की सांघ्य बेला आ पहुंची और तन और मन दौनों क्षीण हो गये तब फिर अहसास हुआ ""मोको कहां ढूंढे रे बन्दे मै तो तेरे पास मे""। लेकिन मृग मरीचिका ने पहले यह अहसास ही नहीं होने दिया । कितनी अच्छी बात कहदी इस छोटी सी कविता में
ReplyDeleteप्रभावित करती पावन अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteब्रिज मोहन श्रीवास्तव जी नमस्कार ,
ReplyDeleteबड़ा हर्ष हुआ ये देख कर की आपने इतने सुचारू रूप से मेरी कविता के अर्थ का वर्णन किया |आभार आपका |हमारी नकारात्मक सोच ही हमें प्रभु से दूर करती है ....प्रभु को जब स्वयं में ढूंढें तो अपनी उस नकारात्मकता पर विजय पायें और निरंतर सकारात्मक होते चले जाएँ ...प्रभु के समीप पंहुंचने के लिए ....
har shabd khud hi prabhu ko awaaz de raha hai....ishwar to sab ke hriday mein hai par,hum manushyon ke hridaya mein itni sachaayi kahan ki unhe dekh sake:)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति....
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव ... हम दंभ की वजह से जीवन की बहुत सी उप्लाब्थियाँ खो देते हैं
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव ... हम दंभ की वजह से जीवन की बहुत सी उप्लाब्थियाँ खो देते हैं
ReplyDeleteसुन्दर लिखा है..पवित्र भाव ..आपको ढेरों बधाई व शुभकामना...
ReplyDeleteअब मैं ..
ReplyDeleteखुद में ढूँढ रही हूँ ...!!
फिर भी तुमको ढूँढ रही हूँ ...!!
प्रभु ..मैं तुमको ढूँढ रही हूँ
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माही" . श्रद्धा में ही इश्वर विराजमान है .
ReplyDeleteप्रार्थना करता मन , कविता , और ईश्वर लगता है कहीं आसपास ही है . ढूंढना बंद कर उसे शायद महसूस करना ज्यादा सार्थक होगा .
ReplyDeleteपारस सी प्रभावशाली रचना है अनुपमा जी ! खुद ब खुद मन अपने क्रियाकलापों का आकलन करने लग जाता है जो उसकी प्रभु मिलन की तलाश में बाधक बन जाते हैं ! इतनी पावन प्रस्तुति के लिये बधाई !
ReplyDeleteसुन्दर चित्र के साथ बहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeletebahut sundar is man ke bhav....aapko padh kar accha laga
ReplyDeleteanu ab aapke sath jud gayi hun....deri le ye maafi mangti hun...
भटक रही थी
ReplyDeleteनिर्जन वन में ....
मिला न मुझको वो सुर मेरा ...!!
बहुत सुंदर कविता और भाव
सुंदर भावाभिव्यक्ति है।
ReplyDeleteआभार
sabhi rachnayen bahut hi sunder hai
ReplyDeleteआभार आप सभी का ...ह्रदय से ...
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