कागा कब ऐहौं मोरे द्वारे ..
सुमिरत सांझ सकारे..
मोरा ..
सकल रैना-
जागा है मनवा ..
निरखत राह तका रे .....!!
कागा......
चूल्हे की लकरी सा ..
जलता हिया मोरा ...
निर्मोही सों
नेहा लगा रे ..
प्रीत मोरी -
मोम की बाती..
उन बिन ..
जल नाहीं पाती ..
उन मन मोम
ना पिघला रे ..
कागा ........
रात बनी मैं चाँद पुकारूं ....
प्रीत किये पछिताऊँ ....
घिर घिर आये
बदरवा कारे ...
नीर बहाऊँ ....
मैं बिरहिन ......
व्याकुल
दरसन बिन.....
बदरी की ओट में
क्यूँ ....
चंदा मोरा
छुपा रे ....
छुपा रे ....
कागा ...........
चित्र और विरह कविता पूरक लगे. अच्छी प्रस्तुति.
ReplyDeleteअहा..
ReplyDeleteबहुत ही गहन आमंत्रण...बहुत ही सुंदर पंक्तियों से आपने मन के भावों को व्यक्त किया है..लाजवाब।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से विरह को उकेरा है ..सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteaapka likha hua mujhe gaane ka mann karta hai Di 1 :-)
ReplyDeleteClassy !
चूल्हे की लकड़ी सा मन , प्रीत मोम की बाती , उन मन मोमना पिघला रे!! कितने बिम्ब , कितने उलाहने कागा से , सुन्दरता से उपमा दे डाली !!
ReplyDeleteविरह की पाती सचित्र अच्छी लगी !
ReplyDelete@Atul ji ..
ReplyDelete''बैठी सगुन मनावत माता ..
कब ऐहैं मेरे बल कुसल घर ..
कबहूँ काग पुनि बाता ....?''
तुलसीदास जी का ये पद पढ़ा था ....यहाँ माता कौशल्या काग की बाट जोह रहीं हैं की वो कब आकर...काँव-काँव करता हुआ .. प्रभु आगमन का संदेसा देगा |यहाँ उसी काग से उर्मिला जी के मन के भाव हैं. ...लक्ष्मण जी के लिए ...!!
प्यारी विरह कविता.
ReplyDeleteसंगीता जी कविता कुछ चिट्ठे ...आपकी नज़र ..हाँ या ना ...? ?
ReplyDeleteपर लेने के लिए आभार आपका ...
रात बनी मैं चाँद पुकारूं ....
ReplyDeleteप्रीत किये पछिताऊँ ....
घिर घिर आये
बदरवा कारे ...
अंसुअन
नीर बहाऊँ ....
मैं बिरहिन .....bahut hi badhiyaa
"मंदिर अरध अवधि बदि हमसो हरि आहार चली जात , ग्रह नक्षत्र वेद जोरि अर्ध करि ताई बनत अब खात" सूरदास कि ये पंक्तियाँ बरबस याद आयी . .
ReplyDeleteचूल्हे की लकरी सा ..
ReplyDeleteजलता मोरा मन ...
निर्मोही सों
नेहा लगा रे ..
प्रीत मोरी -
मोम की बाती..
उन बिन ..
जल नाहीं पाती ..
उन मन मोम
ना पिघला रे ..
कागा ........
क्या दर्द उकेरा है...बहुत ख़ूब
आपकी लोक भाषा में लिखी कविता की प्रस्तुति हर बार की तरह बरबस मन को आकर्षित करने वाली है.. आभार !
ReplyDeleteअंसुअन
ReplyDeleteनीर बहाऊँ ....
मैं बिरहिन ......
व्याकुल
दरसन बिन.....
बदरी की ओट में
क्यूँ ....
चंदा मोरा
छुपा रे ....virah main doobi bahut hi shaandaar rachanaa,sunder shabon ka chyan.badhaai aapko.
बहुत ही सुन्दरता से अपने ह्रदय के अनूठे भाव को शब्दो में संजोया है भावानुसार चित्र भी सुन्दर है.....
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा |
ReplyDeleteबहुत सुंदर। छोटे छोटे शब्दों से एक शानदार भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा है आपने.
ReplyDeleteसादर
विरह गीत ..जिसे गुनगुनाने का मन करे.
ReplyDeleteअच्छा विरह गीत .....
ReplyDeleteआशीषजी आभार आपका ...आपने इतना सुंदर पद सूरदास जी का ..
ReplyDelete''पिया बिनु नागिन कारी रात ...''
याद दिला दिया ....
laga jaise koi ga kar suna raha ho..hath mein sitaar liye...
ReplyDeletesundar!
:)