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02 August, 2010

अनुभूती-17

बढ़ता जाता धीमे -धीमे -
जीवन ऐसे ----
अनुभूती --शबरी के खट्टे -मीठे
बेर हों जैसे ॥





सर-सर करती-
सन-नन चलती -
तेज़ हवाएं --
यूँ सम्हल न पायें
मन का घूंघट -
उड़ा ले जाएँ --
चेहरा सबका साफ़ दिखाएँ --

दृष्टि मेरी जीवन पूँजी -
सृष्टि की नवरचना देखूं -
बंद नयन था जीवन सपना -
खुले नयन -जीवन सच देखूं ....
कोई अपना सा बनता पराया -
कोई पराया सा बनता कुछ अपना --
बढ़ता जाता धीमे धीमे जीवन ऐसे -
अनुभूती शबरी के खट्टे मीठे बेर हों जैसे

9 comments:

  1. अनुभूती शबरी के खट्टे मीठे बेर हों जैसे. अति सुन्दर . बहुत भाव पूर्ण .

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  2. Sundar komal bhavpurn anubhuti..
    bahut achha laga

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  3. बढ़ता जाता धीमे -धीमे -
    जीवन ऐसे ----
    अनुभूती --शबरी के खट्टे -मीठे
    बेर हों जैसे ॥

    अतीव मधुर..!!!

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  4. वाह शबरी के बेरों के स्वाद से जीवन की क्या तुलना की है. प्रशंसनीय.

    सुंदर रचना.

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  5. बहुत खूबसूरत रचना ...खट्टे मीठे बेर जैसी

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  6. jee haan sabhi ke jeevan ki yehi anubhooti. bahut sundar rachana.
    dhersaara pyaar,
    babli

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  7. सबरी के बेर तो भक्ति की पराकाष्ठा हैं...
    उन जैसी अनुभूति!!!
    वाह!क्या सुन्दर विम्ब है!!!

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  8. अंतिम पैरा बहुत खूबसूरत है.


    सादर

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