कौन से देस ..?वहां जहाँ मनुष्य के मन में प्रेम इतना प्रबल हो कि अपने अंदर ही नित्य उपजतीं अन्य नकारात्मक प्रवृत्तियां स्वतः ही दुर्बल पड़ने लगें ..!!
प्रेम एक सुखद अनुभूति है ..!!किसी का हो जाना ..किसी में खो जाना ..किसी में रम जाना ही प्रेम है ..!!किसी में डूब जाना ही प्रेम है |प्रेम एक सद्भावना है जो दुर्भावना मिटा देती है |प्रेम बढ़ने पर सत-चित -आनंद -मन होता जाता है|हलका - हलका पंछी की भांति ..मन सदा असमान पर उड़ा उड़ा सा रहता है |मन जहाँ -जिसमे लग जाये ..रम जाये ..वही प्रेम है ...|प्रेम से मेरा अभिप्राय सिर्फ किसी स्त्री-पुरुष के ही रिश्ते से नहीं है बल्कि यहाँ मैं प्रेम का वृहत रूप ..यानि अध्यात्मिक प्रेम की बात कर रही हूँ |प्रेम एक प्रवृत्ति है |सकात्मक सोच का सृजन प्रेम से होता है |कोई भी कार्य करें ,प्रेम से करें |यहाँ तक की अगर झाड़ू भी लगायें तो प्रेम से लगायें |इस प्रकार प्रेम से किया गया कार्य मन केन्द्रित करता है |प्रेम प्रबल होने पर जीने की चाह भी प्रबल हो उठती है ..!
मन लागा मेरो यार फकीरी में ....!!कबीर का मन -''ढाई आखर प्रेम ''में ऐसा रमा कि रमता ही गया और ऐसा काव्य लिख गए पढ़ पढ़ के रहस्य में डूबता ही जाता है मन ...!!मन कहता है .....चला वाही देस ....चला वाही देस ..?कौन से देस ...?जहाँ प्रेम ही प्रेम हो और मन ही उस नगरिया का राजा हो ...!!अरे ये कैसी सुंदर नगरिया है ...प्रेम आधार हैं यहाँ का ...!तो ..निराधार प्रेम ही समक्ष जीवन का आधार है ..!!
इसी आधार पर सच्चा प्रेम दान है ...प्रतिदान नहीं ...!!सिर्फ देना ही प्रेम है ...!प्रभु ने प्रेम दिया हमें .. हमसे कुछ लिया तो नहीं .....!!प्रभु ने प्रेम दिया हमें ..प्रभु ने ही ये सृष्टि रची ...प्रभु की इस सृष्टि को प्रभु का दिया हुआ प्रेम बांटना ही प्रेम है |प्रेम सिर्फ कल्पना ही नहीं है ...सच्चाई है कर्तव्य के रूप में ...प्रेम कर्त्तव्य है ...!!ऐसा कर्तव्य जो इश्वर हमें सिखाते हैं और समय समय पर लेते रहते हैं हैं हमारी परीक्षा ...!!और इसी परीक्षा में सफल और निपुण होने के लिए प्रेम हमें बांधता है अपनी संस्कृति से....!!प्रेम ऐसा कर्तव्य है जो हमारी संस्कृति से हमें बांधे रखता है जीवन में सफलता पाने के लिए .. ..!!एक परिधि स्थापित करता है प्रेम ....!!
निर्बाध प्रेम हमें एक बंधन में बाधता है ...!!उस बंधन में जहाँ अपनी संस्कृती हमें सिखाती है -सर झुकाना ...अहंकार तोड़ना ....बड़ों का आदर करना ..प्रेम से बोलना ...प्रेम बाटना...पर ये सिखाता कौन है ...? ..पहली गुरु है अपनी माता ..प्रथम ज्ञान शिशु माँ से पाता..... माँ से मिला हुआ अद्भुत वरदान है प्रेम |माता -पिता से मिला हुआ अद्भुत वरदान है प्रेम |ईश्वर से मिला ...?या माता -पिता से मिला ...?देखिये ऐसे ही सिखाती है हमारी संस्कृति माता -पिता को ईश्वर का दर्जा देना ...!!यही प्रेम है ....!प्रेम शाश्वत है ...!सत्य है ...!! अमर है ...!!
मिल जाने पर सुख और न मिलने पर विद्रोह देता है प्रेम |और इसी विद्रोह पर काबू पाना ही प्रेम है ...हिंसा को छोड़ ,अहिंसा के रास्ते जाना ही प्रेम है ...प्रेम तो अथाह सागर है ...!! बहुत मुश्किल से उसे गागर में भरने का प्रयास किया है मैंने ........!!!!!!और प्रयास करते रहना है शायद वही सागर अंजुली में भी भर पाऊँ ...!!