सुषुप्ति छाई ....गहरी थी निद्रा ....
शीतस्वाप जैसा .. .. ....सीत निद्रा में था श्लथ मन ........!!
न स्वप्न कोई .....न कर्म कोई ...न पारितोष ......
अचल सा था .....मुस्कुराने का भी चलन ....
तब ....शांत चित्त ...
बस जागृत रही आस ......
है छुपा हुआ कहाँ प्रभास ....?
जपती थी प्रभु नाम ....
गुनती थी गुन ...गहती थी तत्व ....और ...
टकटकी लगाए राह निहारती थी .......शरद की ....!!
हर साल की तरह ......कब आये शरद और ...
हरसिंगार फिर झरे मेरी बगिया में ...बहार बनके ....
अब पुनः ....शरद आया है .....
अहा .....लद कर छाया है .....
चंदा सूरज सा ....
श्वेत और नारंगी रंग लिए ...
हरसिंगार अबके ......!!!!
नवल ऋतु .....
नवल पुष्प ....
नित-नित झर-झर फूल झरें अक्षर के ....!!!!
आ ही गयी शरद की हल्की गुलाबी ....
शीतल हेमंत की बयार ......
मन किवाड़ खटकाती .....
दस्तक देती बारम्बार ...
देखो तो .....
बगिया मे मेरे .....टप ...टप ...टपा टप .....
झरने लगा है हरसिंगार ..........................
और ......
अंबर से वसुंधरा पर ......
रिसने लगी है ...जमने लगी है .........
जैसे मेरे मन की कोमल पंखुड़ी पर ..........
तुम्हारे अनुनेह सी अनमोल .........
तुम्हारे अनुनेह सी अनमोल .........
पुनः ..... बूँद बूँद ओस.....!!