कभी पूजा
कभी इबादत कभी आराधन
जब भी मिलती है मुझे ,
भेस नया रखती क्यूँ है ,
ऐ बंदगी तू मुझे
नित नए रूप में मिलती क्यूँ है ?
अनुपमा त्रिपाठी
"सुकृति "
''ज़िंदगी एक अर्थहीन यात्रा नहीं है ,बल्कि वो अपनी अस्मिता और अस्तित्व को निरंतर महसूस करते रहने का संकल्प है !एक अपराजेय जिजीविषा है !!''
रँग की फगुनाहट है
प्रकृति की रचना का
हो रहा अब स्वागत है
मन मयूर थिरक उठा
आम भी बौराया है
चिड़ियों ने चहक चहक
राग कोई गाया है
जाग उठी कल्पना
लेती अंगड़ाई है
नीम की निम्बोड़ि भी
फिर से इठलाई है
कोयल ने कुहुक कुहक
संदेसा सुनाया है
अठखेलियों में सृष्टि के
रँग मदमाया है
सखी फिर बसंत आया है
अनुपमा त्रिपाठी
"सुकृति"