विजन निशा की व्याकुल भटकन ,
पथकिनी का ऐसा जीवन ,
मलयानिल का वेग सहन कर ,
मुख पर कुंतल का आलिंगन ,
बढ़ती जाती पथ पर अपने ,
उषा का स्वागत करता मन !!
रात्रि की निस्तब्धता में
कुमुदिनी कलिका का किलक बसेरा
प्रातः के ललाम आलोक में
उर सरोज सा खिलता सवेरा !!
री पथकिनी तू रुक मत
नित नित चलती चल ,
धरा पर सूर्य की आभा से
मचलती चल !!
अनुपमा त्रिपाठी
"सुकृति "
इस रूप गर्विता के पांव को धरती भी चूमती होगी। अति सुन्दर कृति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना,
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteचरैवेती का संदेश देती सुंदर कृति
ReplyDeleteचलना ही जिदंगी है
ReplyDeleteखूबसूरत अभिव्यक्ति .....एहसास दिल के
ReplyDeleteऊषा का स्वागत करता मन कितनी आतुरता से रात्रि के बाद लालिमा लिए भोर की प्रतीक्षा करता है । ऐसे में पथकिनी कैसे रुक सकती है ।। बहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२८-०५-२०२२ ) को
'सुलगी है प्रीत की अँगीठी'(चर्चा अंक-४४४४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
@अनीता सैनी 'दीप्ती ' जी आपका सादर धन्यवाद आपने मेरी कृति को चर्चा मंच पर स्थान दिया!!
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन
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ReplyDeleteरी पथकिनी तू रुक मत
नित नित चलती चल ,
धरा पर सूर्य की आभा से
मचलती चल !!..बहुत सुंदर प्रेरणा से युक्त सराहनीय रचना।
प्रेरणादायक सृजन, चलना ही जीवन है,सादर नमन आपको 🙏
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना
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