और तिल्ली धरी है कूट -
आज सजन की आवती -
सो कौन बात की छूट .......!!
गुड़ होतो तो
गुलगुला बनाती ....
तेल लै आती उधार...
मनो का करों जा बात की ..
मैं आटे से लाचार ........!!!!''
कितना कुछ करना चाहते हैं हम इस जीवन में !!और ज़िन्दगी के इस घेरे में बंध कर क्या - क्या कर पाते हैं ...!!
स्वप्न और यथार्थ के बीच की कड़ी ही जीवन है ...!!
भले ही हम तरक्की कर चाँद पर ही क्यों न घर बना लें ,कुछ मौलिक बातों से दूर हम कभी ....कभी नहीं जा पाते !!यही शाश्वत सत्य से जुड़ाव ही, हमें जीवन को जीने का कोई संदर्भ ,कोई कारण भी देता है !!
भले ही हम तरक्की कर चाँद पर ही क्यों न घर बना लें ,कुछ मौलिक बातों से दूर हम कभी ....कभी नहीं जा पाते !!यही शाश्वत सत्य से जुड़ाव ही, हमें जीवन को जीने का कोई संदर्भ ,कोई कारण भी देता है !!
समय के साथसाथ पुरानी कहावते ,मान्यताएं सभी तो दम तोड़ रहीं हैं |अम्मा की दी हुई इस धरोहर को आप सभी तक पहुंचा कर उनको एक भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ |वो क्या गयीं मेरा बुन्देलखंडी भाषा से जैसे नाता ही टूट गया |
मेरा वो --''काय अम्मा ?''पूछना और उनका वो --''कछु नईं बेटा ....''कहना बहुत याद आ रहा है | आज उन्हीं की यादों के साथ पुनः जी ले रही हूँ अपना बचपन थोड़ी देर के लिए ....!!
मेरा वो --''काय अम्मा ?''पूछना और उनका वो --''कछु नईं बेटा ....''कहना बहुत याद आ रहा है | आज उन्हीं की यादों के साथ पुनः जी ले रही हूँ अपना बचपन थोड़ी देर के लिए ....!!
''धीरे गूँद गुंदना री गूँदना......धीरे गूँद गूँदना री .....''
ये गीत भी अम्मा गाती थीं |
और इसे लिखते लिखते भी मन मुस्कुरा रहा है |याद आ रहा है उनके हाथ पर बना वो गूँदना |आजकल के बच्चे जिसे टैटू कहते हैं ,अम्मा उसे गूँदना कहती थीं |सच है न .........कुछ तो है जो कभी नहीं बदलता .....जैसे जीवन की मौलिकता .....!!या हमारा माटी से जुड़ाव ....
''मन क्यूँ नहीं भजता राम लला .....
कृष्ण नाम की माखन मिसरी ....
राम नाम के दही बड़ा ...
राम नाम के दही बड़ा ...
मन क्यूँ नहीं भजता राम लला ....!!''
अम्मा काम करती जाती थीं और गाने गुनगुनाती जाती थीं !!
''छोटी-छोटी सुइयां रे ....जाली का मेरा काढ़ना ....!!''
अब समझ में आता है ये सब रियाज़ होता था उनका ...!!
''संजा के मिसराइन के इते बुलौआ आए |सोई आए गाना चल रओ''(शाम को मिसराइन याने -श्रीमति मिश्रा ,के घर गाने का बुलावा है ,इसलिए गाने का रियाज़ हो रहा है ...!!):))
और फिर शाम को मिसराइन के घर ढोलक की धमक और गीतों भरी वो शाम .....
कितनी सादगी से ,परम्पराओं से जुड़ा सार्थक सुंदर जीवन ...........
हृदय से आभार रविकर जी ....!!
ReplyDeleteयादों को नमन!
ReplyDeleteबनी रहे जीवन की मौलिकता, जो खो गयी हो खोज लायें उन्हें हम यादों से यूँ ही!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - बुधवार - 25/09/2013 को
ReplyDeleteअमर शहीद वीरांगना प्रीतिलता वादेदार की ८१ वीं पुण्यतिथि - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः23 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
बहुत बहुत आभार दर्शन जी ...
Deleteहाय ..कहाँ पहुंचा दिया . सच, कुछ भी तो नहीं बदलता ..बस वक़्त के साथ नाम बदल जाते हैं.
ReplyDeleteभावभीने संस्मरण |
ReplyDeleteअम्मा काम करती जाती थीं और गाने गुनगुनाती जाती थीं !!
ReplyDelete''छोटी-छोटी सुइयां रे ....जाली का मेरा काढ़ना ....!!''
अब समझ में आता है ये सब रियाज़ होता था उनका
वाह, पढ़ते पढ़ते कितने चित्र उभर आये आँखों के सामने..आभार!
यादों के रास्ते पर मन अनायास ही
ReplyDeleteजब दौड़ लगाता है तो
कितना कुछ समेटे
बचपन अपनी
हथेलियां फैला देता है झट से
मन को छूती पोस्ट ....
बहुत अच्छा लगा, आपकी पोस्ट पढते - पढते पुरानी यादों को फिर से जीना..सुन्दर अहसास...
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteस्मृति के पथ पर पुनरागमन अच्छा लगा !
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बहुत सुंदर रचना , आपने अपने साथ साथ हम सभी के बचपन के दिन की याद दिला दी |
ReplyDeleteजीवन दर्शन समेटे सहेजने योग्य स्मृतियाँ
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका पोस्ट पढ़कर. बचपन की ऐसी यादें जब कभी स्मृति-पटल पर आती है तो ऐसे ही भाव-विभोर कर जाती हैं और मन करता है काश वापस उन्ही दिनों में लौट जाएँ. गूँदना से याद आया की मेरी दादी के हाथों पर भी हुआ करता था. मेरी मातृभाषा मैथिली में इसे 'गोधना' कहते हैं. दादी की यादों को बांटने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद और उन्हें नमन.
ReplyDeleteस
ReplyDeleteकितना मीठा राग था जीवन ,
कितना ये बे -बाक था जीवन।
अम्मा का ब्योहार था जीवन।
सुबह सवेरे शाम था जीवन।
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
''महुआ ले आई बीन के -
और तिल्ली धरी है कूट -
आज सजन की आवती -
सो कौन बात की छूट .......!!
अरी... गुड़ होतो तो
गुलगुला बनाती ....
तेल लै आती उधार...
मनो का करों जा बात की ..
मैं आटे से लाचार ........!!!!''
ये बुन्देलखंडी कहावत, अम्मा (मेरी दादी ) बहुत सारी चीज़ों में अपनी लाचारगी को छुपाते हुए, बहुत खुश होकर कहा करती थीं |उनकी लाचारगी अब समझ में आती है |कितना कुछ करना चाहते हैं हम इस जीवन में !!और ज़िन्दगी के इस घेरे में बंध कर क्या - क्या कर पाते हैं ...!!
स्वप्न और यथार्थ के बीच की कड़ी ही जीवन है ...!!भले ही हम तरक्की कर चाँद पर ही क्यों न घर बना लें ,कुछ मौलिक बातों से दूर हम कभी ....कभी नहीं जा पाते !!यही शाश्वत सत्य से जुड़ाव ही, हमें जीवन को जीने का कोई संदर्भ ,कोई कारण भी देता है !!
समय के साथसाथ पुरानी कहावते ,मान्यताएं सभी तो दम तोड़ रहीं हैं |अम्मा की दी हुई इस धरोहर को आप सभी तक पहुंचा कर उनको एक भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ |वो क्या गयीं मेरा बुन्देलखंडी भाषा से जैसे नाता ही टूट गया |
मेरा वो --''काय अम्मा ?''पूछना और उनका वो --''कछु नईं बेटा ....''कहना बहुत याद आ रहा है | आज उन्हीं की यादों के साथ पुनः जी ले रही हूँ अपना बचपन थोड़ी देर के लिए ....!!
''धीरे गूँद गुंदना री गूँदना......धीरे गूँद गूँदना री .....''
ये गीत भी अम्मा गाती थीं |
और इसे लिखते लिखते भी मन मुस्कुरा रहा है |याद आ रहा है उनके हाथ पर बना वो गूँदना |आजकल के बच्चे जिसे टैटू कहते हैं ,अम्मा उसे गूँदना कहती थीं |सच है न .........कुछ तो है जो कभी नहीं बदलता .....जैसे जीवन की मौलिकता .....!!या हमारा माटी से जुड़ाव ....
''मन क्यूँ नहीं भजता राम लला .....
कृष्ण नाम की माखन मिसरी ....
राम नाम के दही बड़ा ...
मन क्यूँ नहीं भजता रम लला ....!!''
अम्मा काम करती जाती थीं और गाने गुनगुनाती जाती थीं !!
''छोटी-छोटी सुइयां रे ....जाली का मेरा काढ़ना ....!!''
अब समझ में आता है ये सब रियाज़ होता था उनका ...!!
''संजा के मिसराइन के इते बुलौआ आए |सोई आए गाना चल रओ''(शाम को मिसराइन याने -श्रीमति मिश्रा ,के घर गाने का बुलावा है ,इसलिए गाने का रियाज़ हो रहा है ...!!):))
और फिर शाम को मिसराइन के घर ढोलक की धमक और गीतों भरी वो शाम .....
कितनी सादगी से ,परम्पराओं से जुड़ा सार्थक सुंदर जीवन ...........
यादों की फुहार में भींगता मन …।
ReplyDeletekuch purani baatein phir se tazaa ho gayin..is sundar post ke liye abhaar
ReplyDeleteआपने बहुत कुछ याद दिला दिया..अच्छा किया हमसे बाँट कर ...बहुत अच्छा लगा अनुपमा जी..वैसे बिहारी कहावत में तो इतनी मधुरता नहीं है पर हर अवसर के लिए अति उपयुक्त है ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteजय जय जय घरवाली
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteजय जय जय घरवाली
बुंदेलखण्डी सुन कर बड़ा अच्छा लगा। न जाने कितना ज्ञान लोकगीतों में छिपा है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़ कर....ये मीठी यादें हैं....मन को जोड़ती..यादों को संजोती
ReplyDeleteयादों के रास्ते पर मन अनायास ही
ReplyDeleteजब दौड़ लगाता है तो
कितना कुछ समेटे
वाकई मन को छूती पोस्ट ...
कृपया यहाँ भी पधारें
http://sanjaybhaskar.blogspot.in
बहुत बहुत आभार सरिता जी ...
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
ReplyDeleteकितना कुछ करना चाहते हैं हम इस जीवन में !!और ज़िन्दगी के इस घेरे में बंध कर क्या - क्या कर पाते हैं ...!!
ReplyDeleteस्वप्न और यथार्थ के बीच की कड़ी ही जीवन है ...!!भले ही हम तरक्की कर चाँद पर ही क्यों न घर बना लें ,कुछ मौलिक बातों से दूर हम कभी ....कभी नहीं जा पाते !!यही शाश्वत सत्य से जुड़ाव ही, हमें जीवन को जीने का कोई संदर्भ ,कोई कारण भी देता है !!
आदरणीया अनुपमा जी , आपके इस सुन्दर लेखन ने मन को बचपन में ले जाकर भाव विभोर कर दिया, आपका धन्यवाद!
आज सजन की आवती -
ReplyDeleteसो कौन बात की छूट .......!!
वाह ...
परम्पराओं की खुशबू बिखेर दी आपने ....और उस बोली के सौंधेपन ने पूरे मन मस्तिष्क को जैसे अपने वश में कर लिया ...बहोत ही प्यारा लेखन
ReplyDeleteअम्मा की यादों को गूँथ कर पुरानी परम्पराओं से नाता जोड़ दिया है .... यादों के झरोखे से झांकना अच्छा लगा । बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteहृदय से आभार आप सभी का ......
ReplyDeleteअरे वाह ! कितना सरस एवं रसीला संस्मरण ! मन सुधियों के आसमान में उड़ चला है ! बहुत सुन्दर !
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