मुड़ती हुई सी राह की वो मुश्किलें
कर न पाईं थीं मेरे मन को हताश
गूँज उठती आस वही एक नाद बन
रंग उठता था कि जैसे बन पलाश !!
प्रकृति से सार पाने की क्रिया का
भोर से मन जोड़ने की प्रक्रिया का
नित नए अवगुंठनो को खोलने का
करती हूँ सतत अनूठा सा प्रयास !!
मुड़ती हुई सी राह की वो मुश्किलें
कर न पाईं थीं मेरे मन को हताश
मोर की टिहुँकार सुन मैं जाग जाती
पपीहे की पिहु पिहु में गीत गाती
बासन्ती हँसी में जाग जाती मेरे हृद की
सोई हुई अप्रतिम उजास !!
मुड़ती हुई सी राह की वो मुश्किलें
कर न पाईं थीं मेरे मन को हताश !!
अनुपमा त्रिपाठी
"सुकृति ''
वाह वाह! खूब अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं प्रेरणास्पद कविता है आपकी अनुपमा जी। अभिनंदन।
ReplyDeleteप्रकृति से प्रेरणा ले कर एक सकारात्मक सोच के साथ लिखी बेहतरीन रचना । प्रयास निरंतर जारी रहे ।
ReplyDeleteसकारात्मकता सदा सही मार्ग दिखलाती है ! सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह , आभार आपका
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद श्वेता सिन्हा जी मेरी रचना को साझा करने हेतु ❤!
Deleteप्रकृति से सार पाने की क्रिया का
ReplyDeleteभोर से मन जोड़ने की प्रक्रिया का
नित नए अवगुंठनो को खोलने का
करती हूँ सतत अनूठा सा प्रयास !!
बस यूँ ही अवगुंठन खोलना है ही है जिंदग।