विषयगत ....
मद में डूबा ..
चिन्मय विमुख ..
क्यों छुपा हुआ है
इंसान
हर समय ..
एक नकाब में ...
हर समय ..
एक नकाब में ...
मर्म का भेद....
समझ समझ के भी-
कठिन गणित सा ..
कुछ समझ न आये -
तो कैसे समझूं ...?
आँख तो दिखती है ..
चेहरा दीखता ही नहीं ...!!
इस भीड़ भरे मेले में ..
अपनी राग गाऊँ
या न गाऊँ ...?
सोच में डूबी ..!!
दग्ध सी ...
दुविधा में पड़ी -सोच में डूबी ..!!
तपती धूप और ..
सेहरा पर चलते चलते -
जीवन की पूँजी समझ -
मुठ्ठी में रेत ही भरी मैंने .....!!
घडी की टिक-टिक
चलती रही निरंतर ....
घडी की टिक-टिक
चलती रही निरंतर ....
वक्त गुजरता गया ..
क्षण-क्षण कटता गया ...
फिसलती चली गयी रेत...!!!
और ...
आया हाथ कुछ भी नहीं ...!!
आया हाथ कुछ भी नहीं ...!!
एक उम्र कितनी कम है ..
एक छोटी सी बात ....
समझने के लिए ..!
बहरूपियों के
ReplyDeleteइस भीड़ भरे मेले में ..
अपनी राग गाऊँ
या न गाऊँ ...?
बहुत गहरी बात कही है कविता में.
सादर
बहरूपियों के
ReplyDeleteइस भीड़ भरे मेले में ..
अपनी राग गाऊँ
या न गाऊँ ...?
दग्ध सी ...
दुविधा में पड़ी -
सोच में डूबी ..!!
तपती धूप और ..
सेहरा पर चलते चलते -
जीवन की पूँजी समझ -
मुठ्ठी में रेत ही भरी मैंने .....!!bahut hi achhe bhaw
एक उम्र कितनी कम है इक छोटी सी बात समझने के लिये... बहुत सुंदर ! और गहरे विचारों का अवलोकन करती कविता !
ReplyDeleteइस विषय पर तो जन्मों लग जाएं तब भी न समझ आए यह माया!
ReplyDeleteयदि समझना चाहे तो पल में समझ आ जाये।
ReplyDeleteएक उम्र कितनी कम है ..
ReplyDeleteएक छोटी सी बात ....
समझने के लिए ..!
बहुत सुन्दर सूत्र!
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवब रचना लिखा है! बधाई !
ReplyDeleteतपती धूप और ..
ReplyDeleteसेहरा पर चलते चलते -
जीवन की पूँजी समझ -
मुठ्ठी में रेत ही भरी मैंने .....!!
घडी की टिक-टिक
चलती रही निरंतर ....
वक्त गुजरता गया ..
क्षण-क्षण कटता गया ...
फिसलती चली गयी रेत...!!!
और ...
आया हाथ कुछ भी नहीं ...!
यही जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है जिसे हम सबसे बड़ी दौलत मान कर सहेजते समेटते रहते हैं वह कब चुक जाती है और हमारे जीवन में अनंत रिक्तता का बेहद पीडादायी अहसास भर जाती है पता ही नहीं चलता ! बहुत खूबसूरत रचना ! बधाई स्वीकार करें !
आपकी रचना पढ़कर इतनी बात मेरी समझ में आई कि जीवन का एक बड़ा हिस्सा गफलत में निकल जाता है। जब जीवन के रहस्यों की पहचान होने लगती है तो मुठ्ठी में से रेत की तरह से जिन्दगी फिसल जाती है........इस बाबत मुझे डा० तश्ना आलमी की गजल का एक मतला याद आ रहा है।
ReplyDelete++++++++++++++++++++
जिंदगी जब समझ में आने लगी।
मौत दरवाजा खटखटाने लगी॥
डा० तश्ना आलमी
======================
-डॉ० डंडा लखनवी
जीवन एक अनबुझी पहेली तो है ही.आपने अच्छी तरह से अभिव्यक्ति दी है.
ReplyDeleteमुखौटा , नकाब , स्वांग , बहुरूपिया - एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग - पर शायद क्या ऐसा है ? मुझे लगता है ये सारे चेहरे उसी आदमी के हैं , पर कौन सा असल है , यही पहचानना है .
ReplyDeleteआपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके पोस्ट की है हलचल...जानिये आपका कौन सा पुराना या नया पोस्ट है यहाँ...........
ReplyDeleteनयी-पुरानी हलचल
एक उम्र कितनी कम है ..
ReplyDeleteएक छोटी सी बात ....
समझने के लिए ..!
बहुत गहन चिंतन...जीवन के यथार्थ को बहुत सटीकता से उकेरा है..
गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमेरी रचना पढ़ने और अपने विचार देने के लिए आभार ..!!
ReplyDeleteएक ही इंसान अलग अलग मुखौटा लगाये या इंसान हर समय एक झूट का मुखौटा लगाये रहे ...
बात वहीँ आ जाती है ...
झूठ का मुखौटा बहुत कष्ट देता है ...!!
एक उम्र कितनी कम है ..
ReplyDeleteएक छोटी सी बात ....
समझने के लिए ..!बहुत गहरी बात गहन अभिव्यक्ति...
बधाई !
मद में डूबा ..
ReplyDeleteचिन्मय विमुख ..
क्यों छुपा हुआ है इंसान
हर समय ..
एक नकाब में ...मर्म का भेद....समझ समझ के भी-कठिन गणित सा .. कुछ समझ न आये -तो कैसे समझूं ...?आँख तो दिखती है ..
चेहरा दीखता ही नहीं ...!!
insaan ke dohare byaktitva per prakash dalati hui bahut sunder shabdon main likhi anoothi rachanaa.badhaai sweekaren.
एक उम्र कितनी कम है ..
ReplyDeleteएक छोटी सी बात ....
समझने के लिए ..!
शायद कई जन्म भी कम ही पड़ें. उम्दा रचना.