उठती हुई पीड़ा हो ,
या हो
गिरता हुआ ,
मुझ पर अनवरत बरसता हुआ
सुकूँ ,
वर्तुल वलय के भीतर,
बनते अनेक वलयों की
जब जब
बनते अनेक वलयों की
जब जब
यथा कथा कहती है
ये लहर ,
ये लहर ,
भाव मेरा इस तरह डूबता है
कि फिर उभर आती है ,
कि फिर उभर आती है ,
कोई
अनुपमा त्रिपाठी
"सुकृति "
उमंग, उत्साह, पीड़ा, आनन्द सब लहरों से आते हैं और समेट लेते हैं वर्तुल वलयों के आवरण में। अद्भुत चित्रात्मकता।
ReplyDeleteपीड़ा हो या सुकून भावों की प्रबलता ही तो काव्य को जन्म देती है, अर्थात कवि के दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं, वह पीड़ा और सुख को दोनों को ही बदल देता है एक सुंदर कथ्य में !
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26 -5-21) को "प्यार से पुकार लो" (चर्चा अंक 4077) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
सादर धन्यवाद आपका।
Deleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह ! विचारों का सुंदर प्रवाह,उत्कृष्ट रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति आ०अनुपमा जी।
ReplyDeleteभाव मेरा इस तरह डूबता है
ReplyDeleteकि फिर उभर आती है ,
कोई
नई नवेली सी कविता !!
सच कहा आपने ऐसा ही होता है जब हम खामोश होते हैं तो मन में शब्दों का सैलाब उमड़ता है!
भाव मेरा इस तरह डूबता है
ReplyDeleteकि फिर उभर आती है ,
कोई
नई नवेली सी कविता !!
सच कहा आपने ऐसा ही होता है जब हम खामोश होते हैं तो मन में शब्दों का सैलाब उमड़ता है!
बहुत खूब !
ReplyDeleteये लहरें ऐसे ही प्रवाह मय वर्तुल बनाती रहें । और कविताएँ रची जाएं । 👌👌👌👌
ReplyDeleteवाह! काव्य वर्तुल सुधा रस बहाते रहें।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
लहरें कभी कभी समुद्र तट पर मोती छोड़ जाती हैं। सुंदर रचना।
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